फुटपाथ पर बैठे बुजुर्ग को पुलिस ने भगाया… लेकिन जब उनकी असलियत पता चली, पूरा थाना सलाम करने लगा!”

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फुटपाथ पर बैठे बुजुर्ग को पुलिस ने भगाया… लेकिन जब उनकी असलियत पता चली, पूरा थाना सलाम करने लगा!

दिल्ली की तपती दोपहर थी। फुटपाथ पर एक दुबला-पतला बुजुर्ग बैठा था—उम्र करीब 75 साल, चेहरे पर गहरी झुर्रियां, बिखरे बाल, थकी हुई आंखें। उसने फीके, पुराने कपड़े पहन रखे थे, पैरों में टूटी चप्पलें थीं और हाथ में एक पुराना कपड़े का थैला। वह चुपचाप भीड़ के बीच अकेला बैठा था। राहगीर आते-जाते उसे देखते, मगर कोई रुकता नहीं। कुछ लोग नजरें फेर लेते, कुछ हंसकर अपने दोस्तों से कहते, “देखो, एक और भिखारी!” किसी ने कहा, “ऐसे लोग ही शहर गंदा करते हैं।”

बुजुर्ग की आंखें सब सुन रही थीं, मगर उनके होठों पर कोई आवाज नहीं थी। चेहरे पर अपमान का दर्द था, लेकिन वह शांत थे। तभी वहां दो पुलिस वाले पहुंचे। वर्दी में अकड़ते हुए उनमें से एक ने तेज आवाज में कहा, “ओए उठ! यहां बैठकर गंदगी फैला रहा है, भिखारियों के लिए यह शहर नहीं है।” बुजुर्ग ने धीरे से सिर उठाया, उनकी नजर में गहरी चुप्पी थी। उन्होंने कुछ कहने की कोशिश की, मगर उससे पहले दूसरा सिपाही डंडे से इशारा करता हुआ बोला, “चल हट, वरना थाने ले जाएंगे।” इतना कहकर उसने हल्का धक्का दिया। बुजुर्ग लड़खड़ा गए, उनका थैला गिरा और उसमें से कुछ पुराने कागज बाहर निकल आए। राहगीरों ने यह दृश्य देखा, मगर कोई आगे नहीं आया। बुजुर्ग ने कांपते हाथों से अपने कागज समेटे, थैला उठाया और धीरे-धीरे आगे बढ़ गए। उनकी चाल में भारीपन था, जैसे वह हर कदम के साथ अपमान का बोझ ढो रहे हों।

सड़क पर माहौल फिर से सामान्य हो गया। लेकिन बुजुर्ग के दिल में एक चिंगारी जल रही थी। उस रात वही दो पुलिस वाले अपने साथियों से हंसते हुए किस्सा सुना रहे थे, “आज एक मजा आ गया, एक बूढ़ा भिखारी सड़क पर बैठा था, डंडा दिखाया तो डर गया।” उनकी हंसी गूंज रही थी, किसी ने नहीं सोचा कि कल वही हंसी उनके लिए सजा बन जाएगी।

अगले दिन शहर के सबसे बड़े पुलिस स्टेशन में एक घटना होने वाली थी, जिसने सबको चौंका दिया। सुबह पुलिस स्टेशन का माहौल रोज की तरह चहल-पहल से भरा था। लोग अपनी शिकायतें लेकर आए थे—किसी का मोबाइल चोरी हुआ, किसी का पर्स गायब, कोई पासपोर्ट वेरिफिकेशन कराने आया था। डेस्क पर बैठे सिपाही फाइलें पलट रहे थे, टाइपिंग की आवाजें आ रही थीं। तभी स्टेशन के बाहर अचानक एक गाड़ियों का काफिला आकर रुका—चमचमाती सफेद एसयूवी, उसके पीछे दो सरकारी वाहन और एक जीप। गाड़ियों पर लगी लाल-नीली बत्ती वाले सायरन चमक रहे थे। पुलिस वाले एक-दूसरे की ओर देखने लगे, “कौन आ रहा है? लगता है कोई बड़ा अफसर।”

कुछ सिपाही बाहर भागे। अगले ही पल स्टेशन का माहौल बदल गया। वरिष्ठ अफसर गाड़ियों से उतरे और सीधे मुख्य गेट की ओर बढ़े। लेकिन सबसे बड़ा झटका तब लगा जब उन गाड़ियों के बीच से वही बुजुर्ग बाहर आए। वही बुजुर्ग, जिन्हें कल सड़क पर भिखारी कहकर अपमानित किया गया था। अब उनका रूप अलग था—साफ-सुथरा सफेद कुर्ता-पाजामा, चमकती काली जूती, हाथ में चमड़े का बैग। उनके चारों ओर सुरक्षाकर्मी थे। गेट पर तैनात सिपाही सन्न रह गए। वही लोग, जिन्होंने कल उन्हें डंडे से धक्का देकर भगा दिया था, आज उनकी ओर देखने की भी हिम्मत नहीं कर पा रहे थे।

बुजुर्ग ने गेट के अंदर कदम रखा। उनकी चाल में शांति थी, लेकिन हर कदम जैसे बिजली गिरा रहा था। आसपास खड़े लोग बुदबुदाने लगे, “यह वही है ना? अरे वही बूढ़ा! लेकिन इतने बड़े अफसरों के साथ क्यों आया?” थोड़ी ही देर में पूरी थाने में खबर फैल गई। अफसरों ने दौड़कर उनकी तरफ हाथ जोड़े, “सर, अंदर आइए।” पुलिस स्टेशन का कॉन्फ्रेंस हॉल तुरंत खाली कराया गया, कुर्सियां सजी, फाइलें हटाई गईं। वरिष्ठ अधिकारी उनके साथ अंदर गए। वही दो सिपाही, जिन्होंने कल उन्हें अपमानित किया था, दरवाजे के पास खड़े थे। उनके माथे पर पसीना था, कल तक जो अकड़ थी, आज डर में बदल चुकी थी।

बुजुर्ग ने बस एक नजर उन दोनों पर डाली। कोई गुस्सा नहीं, कोई ऊंची आवाज नहीं, लेकिन उनकी शांत आंखें ही काफी थीं। दोनों सिपाही के दिल की धड़कनें तेज हो गईं। कॉन्फ्रेंस हॉल में अफसरों ने उनकी कुर्सी खींचकर उन्हें बैठाया। कोई कह रहा था, “सर, हमें अंदाजा भी नहीं था आप आएंगे। आपने बताना भी जरूरी नहीं समझा।” लेकिन उस बुजुर्ग की चुप्पी में ही सबको जवाब मिल गया।

थोड़ी देर बाद थाना प्रभारी ने सब कर्मचारियों को इकट्ठा होने का आदेश दिया। पूरा स्टाफ, छोटे से लेकर बड़े अफसर तक, हॉल में भर गया। सबकी निगाहें उस बुजुर्ग पर थीं। धीरे-धीरे फुसफुसाहट गूंजने लगी, “यह कौन है? इतना रिस्पेक्ट क्यों दिया जा रहा है? लगता है बहुत बड़े आदमी हैं।” वह सस्पेंस अपने चरम पर था। कल तक जो भिखारी समझे गए थे, आज वही पूरे पुलिस स्टेशन का केंद्र बन गए थे। अब सच सामने आने वाला था।

कॉन्फ्रेंस हॉल में सन्नाटा था। दर्जनों पुलिसकर्मी कुर्सियों पर बैठे थे, कुछ खड़े थे, लेकिन किसी की हिम्मत नहीं हो रही थी कि ज्यादा हिल-डुल भी लें। सबकी नजरें उस बुजुर्ग पर टिकी थीं, जो शांति से कुर्सी पर बैठे थे। थाना प्रभारी ने गला साफ किया और भारी आवाज में कहा, “सब ध्यान से सुन लो। जिनसे तुम सवाल पूछने की हिम्मत भी नहीं कर सकते, वह आज तुम्हारे बीच बैठे हैं। कल तुमने उन्हें सड़क पर अपमानित किया था। यह वही हैं—श्री सूर्य प्रकाश वर्मा।”

पूरा हॉल गूंज उठा। कुछ ने तुरंत खड़े होकर सैल्यूट किया, कुछ की आंखें फैल गईं और वही दो सिपाही, जिन्होंने कल उन्हें डंडा मारा और धक्का दिया था, जमीन में गढ़ गए। थाना प्रभारी ने आगे कहा, “तुम सबको पता होना चाहिए, वर्मा साहब हमारे राज्य के पूर्व डीजीपी रहे हैं। इन्होंने ही इस पुलिस फोर्स को उस मुकाम तक पहुंचाया, जहां आज हम खड़े हैं। यह पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित अधिकारी हैं, जिन्होंने अपनी ईमानदारी और निडरता से देश की सेवा की।”

भीड़ में से दबी आवाजें उठीं, “डीजीपी! यह वही हैं, जिनकी कहानियां हम ट्रेनिंग में पढ़ते थे और हमने इन्हें सड़क पर धक्का दिया।” वह दो सिपाही कांपते हुए खड़े हुए, पसीना उनके माथे से बह रहा था। एक ने हिम्मत जुटाकर कहा, “सर, हमसे गलती हो गई। हमें माफ कर दीजिए।” सूर्य प्रकाश वर्मा ने धीरे से नजरें उठाईं, उनकी आंखों में कोई गुस्सा नहीं था, सिर्फ गहराई और अनुभव की ताकत। उन्होंने शांत स्वर में कहा, “गलती हर इंसान से होती है, लेकिन पुलिस की वर्दी पहनने वाला अगर इंसानियत भूल जाए तो यह गलती नहीं, अपराध बन जाती है।”

पूरा हॉल चुप। हर शब्द जैसे दीवारों से टकरा कर लौट रहा था। वर्मा साहब ने आगे कहा, “कल मैंने तुम्हें सड़क पर इसलिए परखा, ताकि देख सकूं वर्दी का बोझ इंसानियत से भारी तो नहीं हो गया। पर अफसोस, तुम दोनों उस कसौटी पर गिर गए।” उनकी आवाज में गहराई थी, जैसे हर सिपाही के दिल पर चोट कर रही हो। कुछ जवानों की आंखें झुक गईं, कुछ की भर आई।

वर्मा साहब ने अपनी जेब से एक पुरानी पॉकेट डायरी निकाली। उसमें दर्ज घटनाएं, केस और उनके खुद के हाथ से लिखे नोट्स थे। उन्होंने सबके सामने कहा, “मैंने इस पुलिस फोर्स को हमेशा यह सिखाया कि वर्दी की सबसे बड़ी ताकत इंसानियत है। अगर हमसे गरीब, मजबूर और बुजुर्ग ही डरने लगे तो फिर हमारी वर्दी किस काम की?” थाने का हर इंसान सन्न था, यहां तक कि बड़े अधिकारी भी सिर झुकाए खड़े थे। धीरे-धीरे पूरा हॉल खड़ा हो गया, सबने मिलकर उन्हें सैल्यूट किया—“जय हिंद सर!” की आवाज गूंजी।

लेकिन सबसे ज्यादा कांप रहे थे वे दो सिपाही, जिन्होंने कल उन्हें अपमानित किया था। उनके होठ हिल रहे थे, पर आवाज नहीं निकल रही थी। वर्मा साहब ने उनकी ओर देखा और कहा, “माफी मांगने से ज्यादा जरूरी है सबक लेना। याद रखो, जिस तरह तुमने मुझे धक्का दिया, उसी तरह तुम किसी और मजबूर इंसान को भी दे सकते हो। और तब वर्दी का सम्मान खो जाएगा।”

हॉल में बैठे हर जवान ने यह वाक्य दिल में उतार लिया। उस क्षण पूरा माहौल बदल चुका था। वह बुजुर्ग, जो कल तक सड़क पर भिखारी समझे जा रहे थे, आज पूरे पुलिस विभाग के सामने खड़े होकर इंसानियत का सबसे बड़ा सबक दे रहे थे। थाने का माहौल पूरी तरह बदल चुका था। जहां कुछ घंटे पहले तक वही जवान हंसी-ठिठोली और लापरवाही से ड्यूटी निभा रहे थे, अब हर चेहरा झुका हुआ था। सबकी आंखों में पछतावा साफ झलक रहा था।

सूर्य प्रकाश वर्मा ने धीरे-धीरे खड़े होकर डंडे के सहारे चलते हुए सामने मंच जैसा स्थान लिया। उनकी आवाज भारी लेकिन बेहद शांत थी, “आज मैं किसी से बदला लेने नहीं आया हूं। मैंने पूरी जिंदगी इस वर्दी को इज्जत दिलाने में लगा दी। लेकिन कल जब सड़क पर तुम लोगों का बर्ताव देखा तो लगा यह वर्दी अब बोझ बन रही है और यह बोझ जनता नहीं उठाएगी।”

उन्होंने उन दो जवानों की ओर इशारा किया, “तुम्हें लगता होगा कि बूढ़ा आदमी क्या कर लेगा। लेकिन याद रखो, हर बूढ़ा इंसान अपने साथ अनुभव, इतिहास और आशीर्वाद लेकर चलता है। उसे अपमानित करना खुद अपनी जड़ों को काटने जैसा है।” हॉल में एक गहरा सन्नाटा छा गया। एक वरिष्ठ अधिकारी की आंखों से आंसू बह निकले। उन्होंने आगे बढ़कर कहा, “सर, हमें शर्म है कि हम आपके द्वारा बनाए गए रास्ते पर नहीं चल पाए।”

वर्मा साहब ने उनका हाथ थामा और बोले, “शर्म तब तक जिंदा है जब तक इंसानियत जिंदा है। अगर गलती मान ली और उसे सुधारने की कसम खाई तो यही असली जीत है।” उन्होंने सबको संबोधित करते हुए कहा, “आज से तुम सब एक प्रण लो। किसी भी गरीब, मजबूर या असहाय इंसान को कभी मत ठुकराना क्योंकि असली कानून वही है जिसमें दया और न्याय साथ चलते हैं। याद रखो, बिना इंसानियत कानून सिर्फ डंडा है और डंडा हमेशा डर पैदा करता है, भरोसा नहीं।”

उनके शब्द सुनते ही पूरा हॉल एक साथ खड़ा हो गया। हर जवान ने हाथ उठाकर कसम खाई, “हम अपनी वर्दी की असली ताकत इंसानियत को कभी नहीं भूलेंगे।” वह दृश्य देखकर वहां मौजूद हर शख्स की आंखें नम हो गईं। वह बुजुर्ग अब सिर्फ एक रिटायर्ड अधिकारी नहीं थे, बल्कि इंसानियत की जीवित मिसाल बन गए थे।

उसके बाद वर्मा साहब ने धीरे-धीरे बाहर कदम बढ़ाए। बाहर खड़ी भीड़, पत्रकार, स्थानीय लोग, यहां तक कि कुछ वही लोग जिन्होंने कल सड़क पर उन्हें भिखारी समझा था—सब खड़े होकर उनकी राह देख रहे थे। जैसे ही वह निकले, पूरा माहौल तालियों से गूंज उठा। लेकिन उनकी आंखों में आंसू थे। उन्होंने हाथ जोड़कर कहा, “मैं चाहता हूं कि आज का यह सबक किताबों में नहीं, दिलों में लिखा जाए। जब अगली बार कोई बूढ़ा, कोई गरीब या कोई मजबूर तुम्हारे सामने आए तो उसे धक्का मत देना, उसे इंसान समझना।”

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