बेटे के इलाज के लिए भीख मांग रहा था… डॉक्टर निकली तलाकशुदा पत्नी, फिर जो हुआ…
उत्तराखंड के ऋषिकेश की ठंडी सुबह थी। सूरज की पहली किरण गंगा के जल पर सुनहरे रंग बिखेर रही थी। मगर शहर के एक बड़े प्राइवेट अस्पताल के गेट पर कुछ और ही मंजर था। लंबी कतारें, भागते मरीज, एंबुलेंस के सायरन, हाथों में फाइलें और दवाइयाँ लिए भागते लोग—सबके चेहरों पर चिंता और डर साफ झलक रहा था।
भीड़ के उसी शोर में गेट के एक कोने पर एक फटी हुई चादर पर बैठा था अर्जुन। कभी मजबूत कद-काठी वाला यह आदमी अब बिखरा हुआ, थका और टूटा नजर आ रहा था। उसके सामने रखा एक पुराना कटोरा सिक्कों की खनक से भरा था। लोग आते-जाते कुछ सिक्के डाल जाते, कोई घूरकर चला जाता और कोई ताना कस देता—“काम क्यों नहीं करते? भीख क्यों मांग रहे हो?”
मगर अर्जुन की मजबूरी उन तानों से कहीं बड़ी थी। उसके बगल में लेटा था उसका बेटा आर्यन। बस सात साल का मासूम बच्चा, जिसका चेहरा पीला पड़ चुका था। उसकी साँसें तेज-तेज चल रही थीं, खाँसी से सीना हिल रहा था। अर्जुन की आँखों से आँसू लगातार बह रहे थे। वह हर गुजरते इंसान से हाथ जोड़कर कहता—
“मेरे बेटे का इलाज करवा दो। भगवान तुम्हारा भला करेगा।”
लेकिन भीड़ में हर कोई अपने दुःख में डूबा था। अर्जुन की आवाज उस अफरातफरी में कहीं दब जाती।
इसी बीच अस्पताल के गेट पर एक चमचमाती काली कार आकर रुकी। दरवाजा खुला और बाहर उतरी एक महिला डॉक्टर—सफेद कोट, गले में स्टेथोस्कोप, आत्मविश्वास से भरा चेहरा और तेज चाल। उसकी आँखों और हाव-भाव से साफ झलक रहा था कि यह कोई सामान्य डॉक्टर नहीं बल्कि अस्पताल की सीनियर डॉक्टर है।
जैसे ही वह भीतर जाने लगी, उसकी नजर अचानक फटी चादर पर लेटे बच्चे और उसके पास बैठे अर्जुन पर पड़ी। वह ठिठक गई। एक पल को उसकी साँसें थम गईं। बच्चे का चेहरा, अर्जुन की आँसुओं से भीगी आँखें, बिखरे बाल, टूटी हुई उम्मीदें—सबने उसके दिल को झकझोर दिया।
उसने बच्चे की ओर देखा, फिर अर्जुन की ओर। और अचानक उसके होठ काँप उठे। उसके मुँह से अनायास एक नाम निकला—
“अर्जुन…”
अर्जुन ने सिर उठाया। थकी आँखों से सामने खड़ी डॉक्टर को देखा। उसका दिल जोर से धड़क उठा। सामने वही चेहरा था जिसे उसने सालों पहले खो दिया था—नंदिनी, उसकी तलाकशुदा पत्नी।
दोनों की आँखें मिलीं। एक पल में अतीत की सारी बातें लौट आईं—प्यार, तकरार, अधूरे सपने, और आखिरकार तलाक की कड़वी यादें। नंदिनी का चेहरा सख्त था, लेकिन आँखों में तूफान साफ झलक रहा था।
अर्जुन भर्राई आवाज में बोला—
“यह… यह मेरा बेटा है। दूसरी शादी से। लेकिन उसकी माँ अब नहीं रही। नंदिनी… प्लीज इसे बचा लो। यह मेरी आखिरी उम्मीद है।”
नंदिनी का दिल कांप उठा। सामने वही आदमी था जिसने कभी उसका हाथ थामा था और आज वही आदमी अपने बेटे की जान बचाने के लिए भीख माँग रहा था। उसके मन में गुस्सा भी था, चोटिल यादें भी। मगर उन सबसे ऊपर एक मासूम की साँसें थीं।
वह तुरंत चीखी—
“नर्स! स्ट्रेचर लाओ, जल्दी!”
कुछ ही पलों में बच्चे को स्ट्रेचर पर लिटाकर इमरजेंसी की ओर ले जाया गया। अर्जुन भी पीछे दौड़ा, लेकिन रिसेप्शन पर क्लर्क ने हाथ रोक लिया—
“पहले एडवांस जमा करना होगा। वरना केस आगे नहीं बढ़ेगा।”
अर्जुन के आँसू फिर से छलक पड़े। वह गिड़गिड़ाया—
“मेरे पास कुछ नहीं है… जो था दवाइयों में चला गया। भाई साहब, मेरे बेटे को मत मरने दो।”
नंदिनी यह सब सुन रही थी। उसकी आँखों में गुस्सा चमक उठा। उसने क्लर्क को कड़े स्वर में कहा—
“यह मेरा केस है। पेमेंट की चिंता बाद में करना। अभी इलाज शुरू करो।”
उसके आदेश की ठसक ऐसी थी कि क्लर्क तुरंत चुप हो गया।
नंदिनी ने खुद आगे बढ़कर बच्चे की जांच की। ऑक्सीजन लेवल खतरनाक रूप से गिरा हुआ था। उसने टीम को आदेश दिए—
“नेबुलाइज़र लगाओ। खून की जांच करो। एक्स-रे तुरंत। और आईसीयू तैयार करो।”
अर्जुन दूर खड़ा यह सब देख रहा था। उसके दिल में राहत भी थी और शर्म भी। राहत इसलिए कि उसका बेटा अब सुरक्षित हाथों में है, और शर्म इसलिए कि जिस औरत को उसने कभी छोड़ दिया था, वही आज उसके बेटे की जान बचाने की जद्दोजहद कर रही थी।
अंदर आईसीयू में मशीनों की बीप सुनाई दे रही थी। नंदिनी मास्क पहनकर बच्चे के पास खड़ी थी। उसने उसकी नन्ही उंगलियाँ पकड़ लीं और मन ही मन कहा—
“तेरी साँसें अब मेरे जिम्मे हैं। तुझे खोने नहीं दूँगी।”
तीन घंटे तक संघर्ष चलता रहा। कभी ऑक्सीजन गिरता, कभी धड़कन धीमी पड़ती। अर्जुन बाहर बैठा भगवान से रो-रोकर प्रार्थना करता रहा। लेकिन नंदिनी ने हार नहीं मानी। आखिरकार सुबह चार बजे मॉनिटर पर स्थिर लकीरें दिखीं। बच्चे की साँसें सामान्य हो गईं।
नंदिनी बाहर आई। उसके चेहरे पर थकान थी लेकिन आँखों में संतोष। अर्जुन दौड़कर आया—
“कैसा है मेरा बेटा?”
नंदिनी ने गहरी सांस लेकर कहा—
“अब खतरे से बाहर है। अगले 24 घंटे नाजुक हैं, लेकिन अभी डरने की जरूरत नहीं।”
अर्जुन की आँखों से राहत के आँसू झर-झर गिर पड़े। वह नंदिनी के पैरों पर गिरने लगा, लेकिन उसने तुरंत रोक दिया—
“यह सब मत करो अर्जुन। मैं यह इंसानियत के नाते कर रही हूँ, किसी रिश्ते के नाते नहीं।”
अर्जुन का गला भर आया। बोला—
“फिर भी नंदिनी, आज तुमने साबित कर दिया कि इंसानियत सबसे बड़ा रिश्ता है।”
अगले दो दिन इलाज चलता रहा। धीरे-धीरे आर्यन की आँखों में चमक लौट आई। उसकी मासूम मुस्कान देखकर अर्जुन का दिल भर आया। छुट्टी का दिन तय हुआ तो नंदिनी ने अर्जुन को अपने चेंबर में बुलाया।
अर्जुन रोते हुए बोला—
“नंदिनी, मैंने तुम्हें बहुत दुख दिया। तुम्हारे सपनों को बोझ समझा, तुम्हें रोका-टोका, और आखिरकार तुम्हें छोड़ दिया। आज अगर तुम चाहो तो मुझे अपराधी कहो। लेकिन कृपया… मुझे माफ कर दो।”
नंदिनी की आँखें भी नम हो गईं। उसने शांत स्वर में कहा—
“अर्जुन, सबसे बड़ी गलती वही होती है जब इंसान वक्त रहते रिश्तों की कद्र नहीं करता। तुमने वही किया। हाँ, तुमने मुझे बहुत चोट दी। लेकिन अब तुम्हें पछताते देखकर लगता है कि जिंदगी ने तुम्हें सिखा दिया कि प्यार और सम्मान ही सबसे बड़ी पूँजी है।”
अर्जुन ने कांपते स्वर में कहा—
“क्या हम फिर से…”
नंदिनी ने तुरंत बात काट दी—
“नहीं अर्जुन। जो रिश्ता एक बार टूटता है, उसे जोड़ने की कोशिश और दर्द ही देती है। मैं अब अपनी दुनिया में खुश हूँ—अपने मरीजों और अपने फर्ज के साथ। लेकिन इंसानियत का रिश्ता हमारे बीच हमेशा रहेगा। मैंने तुम्हारे बेटे को बचाया क्योंकि इंसानियत किसी तलाक की मोहर से नहीं टूटती।”
अर्जुन की आँखों से आँसू बह निकले। उसने सिर झुका लिया, मगर दिल में नंदिनी के लिए सम्मान भर आया।
नंदिनी ने धीरे से कहा—
“अब तुम्हें अपने बेटे के लिए जीना होगा। याद रखना, वह तुम्हारे अतीत का बोझ नहीं, बल्कि भविष्य की उम्मीद है। उसे संभालना ही तुम्हारा सच्चा प्रायश्चित है।”
अर्जुन ने सिर उठाकर कहा—
“हाँ नंदिनी। अब यही मेरी दुनिया है। मैं वादा करता हूँ, इसे कभी अकेला नहीं छोड़ूँगा।”
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मेरे जीवन की शुरुआत बहुत साधारण थी। पढ़ाई ख़त्म करने के बाद मैं एक निर्माण कंपनी में काम करने लगा। शुरू-शुरू में मेरा काम सिर्फ़ मजदूरों और कर्मचारियों की टीम का प्रबंधन करना था। धीरे-धीरे मुझे काम की आदत हो गई, और जब लोगों से अच्छे रिश्ते बन गए तो मैंने हिम्मत जुटाई और अलग होकर अपनी एक छोटी सी कंपनी खड़ी कर दी। मेरी कंपनी देहरादून में थी, लेकिन काम पूरे उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश में मिलता था। इसलिए मैं हमेशा यात्रा करता रहता था। जब भी घर लौटता, मेरी पत्नी सुनीता अपने चेहरे पर वही संतोष और अपनापन लिए मेरा इंतज़ार करती। उसने तीन बच्चों—दो बेटे और एक बेटी—को जन्म दिया। मैंने उससे कहा कि अब खेती-बाड़ी छोड़कर सिर्फ़ बच्चों और घर पर ध्यान दे। आर्थिक बोझ मैं उठा लूँगा। सुनीता ने मेरी बात मान ली।
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सिर्फ एक रात के लिए घर में सहारा माँगा था, उसने जिंदगी ही बदल दी 🥺😭
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