सिर्फ एक रात के लिए घर में सहारा माँगा था, उसने जिंदगी ही बदल दी 🥺😭
शाम का वक़्त था। सूरज पहाड़ों के पीछे ढल रहा था और आकाश पर गहराते सन्नाटे का रंग छा चुका था। गाँव के एक छोटे से घर में विक्रम अकेला बैठा था। उसकी आँखों में उदासी साफ झलक रही थी। पत्नी के निधन के बाद उसका जीवन सूना हो गया था। न कोई हँसी, न कोई साथ। अकेलापन हर दिन उसके सीने को कुरेदता था।
अचानक दरवाज़े पर दस्तक हुई। विक्रम ने उठकर दरवाज़ा खोला तो सामने उसके चाचा श्यामलाल खड़े थे। उनके साथ एक औरत और एक चार साल का बच्चा भी था। विक्रम ने हैरानी से पूछा,
— “चाचा, यह कौन हैं? और इतनी रात को आप इन्हें मेरे घर क्यों लाए?”
श्यामलाल ने गंभीर स्वर में कहा,
— “बेटा, यह औरत बेसहारा है। यह मेरी दुकान पर रात बिताने आई थी। लेकिन वहाँ सुरक्षित नहीं है। मैंने सोचा, इसे तुम्हारे पास छोड़ दूँ। बस एक रात की बात है, सुबह यह अपने बच्चे के साथ चली जाएगी।”
विक्रम सकपका गया। उसने कहा,
— “चाचा, मैं अकेला रहता हूँ। अगर लोगों को पता चला तो क्या कहेंगे?”
श्यामलाल ने कंधे पर हाथ रखते हुए कहा,
— “बेटा, मजबूरी बड़ी चीज़ होती है। किसी की मदद करना इंसानियत है। चिंता मत कर, यह सुबह चली जाएगी।”
विक्रम चाचा की बात मान गया। उसने औरत और बच्चे को अंदर बुलाया और एक कमरे की ओर इशारा कर दिया।
— “यहाँ आराम करो। कुछ चाहिए तो बता देना।”
औरत की आँखों में बेबसी और डर था। बच्चा उसकी गोद में चिपका हुआ था। विक्रम अपने कमरे में चला गया, लेकिन नींद उसकी आँखों से कोसों दूर थी। उसे लगा कि शायद औरत और बच्चा भूखे होंगे। उसने रसोई में जाकर दूध गरम किया और दो कप चाय बनाई।
वह उस कमरे की ओर गया। दरवाज़ा हल्का खुला था। अंदर देखा तो औरत कोने में बैठी थी और बच्चा उसकी गोद में सो रहा था। दोनों थके और उदास दिख रहे थे। विक्रम ने दरवाज़े पर दस्तक दी और मुस्कुराकर बोला,
— “डरने की ज़रूरत नहीं। बस यह चाय पी लो, थोड़ी राहत मिलेगी।”
औरत ने धीरे से कप लिया और बिना कुछ बोले दरवाज़ा बंद कर लिया। उसकी आँखों में डर तो था, मगर कृतज्ञता भी साफ झलक रही थी।
अगली सुबह जब विक्रम उठा तो दंग रह गया। महीनों से गंदा पड़ा घर चमक रहा था। आँगन साफ़ था, बर्तन चमक रहे थे, और रसोई में ताज़गी महसूस हो रही थी। तभी औरत एक ट्रे में चाय लेकर आई। उसके चेहरे पर हल्की मुस्कान थी। उसने कहा,
— “यह चाय आपके लिए है। मैं थोड़ी देर में अपने बेटे के साथ चली जाऊँगी।”
विक्रम ने हैरानी से कहा,
— “यह सब तुमने किया? घर तो जैसे किसी ने प्यार से सजा दिया हो।”
औरत ने सिर झुकाकर कहा,
— “आपने हमें रात दी, तो मेरा फर्ज़ था कि आपके घर को सँवार दूँ। गंदगी देखकर चैन नहीं आया।”
विक्रम चुप हो गया। उसे अपनी पत्नी की याद आ गई, जो इसी तरह घर को सँवारती थी। उसकी आँखें भर आईं। तभी औरत ने अपने बेटे को जगाया और बोली,
— “बेटा, उठो। हमें काम ढूँढना है, वरना हमारे पास छत भी नहीं होगी।”
विक्रम के मन में कुछ बदलने लगा। उसने कहा,
— “अगर तुम चाहो तो यहाँ काम कर सकती हो। घर बड़ा है, मुझे संभालना मुश्किल पड़ता है। रहने की जगह और मेहनताना मिलेगा।”
औरत ने हिचकते हुए कहा,
— “लोग क्या कहेंगे?”
विक्रम ने मुस्कुराकर कहा,
— “लोग तो हमेशा कुछ न कुछ कहते हैं। मुझे बस इतना पता है कि तुम मेहनती हो। तुम्हें मुझसे डरने की ज़रूरत नहीं।”
बच्चा मासूम मुस्कान के साथ विक्रम की ओर देख रहा था। औरत का दिल पिघल गया। उसने हामी भर दी।
धीरे-धीरे दिन बीतने लगे। औरत ने घर का सारा काम संभाल लिया। विक्रम खेतों में मेहनत करता और लौटने पर गरम खाना और हँसी की आवाज़ें उसका स्वागत करतीं। बच्चा भी उससे घुलमिल गया और उसे चाचा कहने लगा। विक्रम का अकेलापन धीरे-धीरे मिटने लगा।
छह महीने बाद विक्रम का जीवन पूरी तरह बदल चुका था। घर में रौनक थी, मगर एक सवाल उसे कचोटता था। उसने औरत का अतीत कभी नहीं जाना था।
एक शाम विक्रम ने हिम्मत जुटाकर पूछा,
— “तुम कौन हो? क्यों बेसहारा हो?”
औरत की आँखें भर आईं। वह बोली,
— “मेरी भी कभी खुशहाल ज़िंदगी थी। पति मुझसे बहुत प्यार करते थे। लेकिन एक हादसे में उनकी मौत हो गई। हमारी शादी घरवालों की मर्जी के खिलाफ हुई थी। उनकी मौत के बाद ससुराल ने मुझे और बेटे को बोझ समझकर निकाल दिया। तब से भटक रही हूँ।”
विक्रम की आँखें भी नम हो गईं। उसने कहा,
— “मैं भी अपनी पत्नी को खो चुका हूँ। तुम्हारा दर्द मैं समझ सकता हूँ।”
उस दिन से विक्रम और औरत के बीच एक गहरा रिश्ता बन गया। वे एक-दूसरे के दर्द के सहारे बन गए। लेकिन गाँव की सोच पुरानी थी। लोग बातें बनाने लगे। कुछ बुज़ुर्ग विक्रम के घर आए और बोले,
— “यह ठीक नहीं है। इसे घर से निकाल दो।”
औरत की आँखों में आँसू भर आए। उसने सामान समेटा और बेटे का हाथ पकड़कर जाने लगी। बच्चा विक्रम से लिपट गया और बोला,
— “अंकल, हमें मत छोड़ो।”
विक्रम का दिल काँप उठा। उसने सबके सामने कहा,
— “अगर आपको इस रिश्ते से परेशानी है, तो मैं आज फैसला करता हूँ। यह औरत मेरी जिम्मेदारी है और यह बच्चा मेरा बेटा।”
उसने पूजा के कमरे से सिंदूर लाया और औरत की माँग में भर दिया।
— “आज से यह मेरी पत्नी है। अब कोई इसे बेसहारा न कहे।”
गाँव वाले चुप रह गए। औरत की आँखों से आँसू झरने लगे। उसने कहा,
— “आपने मुझे इज्जत और नया जीवन दिया। मैं इसे कभी नहीं भूलूँगी।”
धीरे-धीरे लोगों की सोच बदली। विक्रम और सीता (औरत का नाम) ने न केवल एक नया परिवार बनाया बल्कि गाँव के लिए मिसाल बने। सीता ने सिलाई-बुनाई शुरू की और औरतों को आत्मनिर्भर बनाना सिखाया। विक्रम ने खेतों में नई तकनीक अपनाकर गाँववालों को सशक्त किया। उनका बेटा रवि अब स्कूल जाने लगा और दोस्तों से कहता,
— “मेरे पापा और मम्मी ने सिखाया है कि इंसानियत से बड़ा कोई धर्म नहीं।”
वक्त बीतता गया। उनका घर आश्रय स्थल बन गया। कोई भी बेसहारा आता, तो वे उसे सहारा देते। गाँव का मेला आया, जिसमें सीता और उसकी टीम ने अपने बनाए कपड़े और हस्तशिल्प बेचे। लोग दंग रह गए।
गाँव के मुखिया ने सबके सामने कहा,
— “विक्रम और सीता ने साबित कर दिया कि समाज बदलने के लिए पहले दिल बदलना ज़रूरी है।”
सीख
यह कहानी सिखाती है कि इंसानियत और करुणा से बड़ा कोई धर्म नहीं। अगर हर इंसान किसी एक बेसहारा को सहारा दे, तो दुनिया में कोई भी बेसहारा नहीं रहेगा। समाज की सोच बदलने के लिए हमें अपने दिल में दया और सम्मान का बीज बोना होगा।
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News
मेरे जीवन की शुरुआत बहुत साधारण थी। पढ़ाई ख़त्म करने के बाद मैं एक निर्माण कंपनी में काम करने लगा। शुरू-शुरू में मेरा काम सिर्फ़ मजदूरों और कर्मचारियों की टीम का प्रबंधन करना था। धीरे-धीरे मुझे काम की आदत हो गई, और जब लोगों से अच्छे रिश्ते बन गए तो मैंने हिम्मत जुटाई और अलग होकर अपनी एक छोटी सी कंपनी खड़ी कर दी। मेरी कंपनी देहरादून में थी, लेकिन काम पूरे उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश में मिलता था। इसलिए मैं हमेशा यात्रा करता रहता था। जब भी घर लौटता, मेरी पत्नी सुनीता अपने चेहरे पर वही संतोष और अपनापन लिए मेरा इंतज़ार करती। उसने तीन बच्चों—दो बेटे और एक बेटी—को जन्म दिया। मैंने उससे कहा कि अब खेती-बाड़ी छोड़कर सिर्फ़ बच्चों और घर पर ध्यान दे। आर्थिक बोझ मैं उठा लूँगा। सुनीता ने मेरी बात मान ली।
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