बुजुर्ग बाबा स्टेशन में गिर पड़े , उसे उठाने गया लड़का तो ट्रैन निकल गयी, ऑफिस पहुंचा तो नौकरी भी
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भाग 1: एक नया सवेरा
लखनऊ शहर, नवाबों की नज़ाकत और आम लोगों की जद्दोजहद का एक अनूठा संगम। इसी शहर की एक पुरानी, घनी आबादी वाली बस्ती राजाजीपुरम में नवीन नाम का एक युवक रहता था। 22 साल का नवीन, जिसके कंधों पर उम्र से कहीं ज्यादा बोझ था। उसके पिता, जो एक मामूली सरकारी क्लर्क थे, दो साल पहले हार्ट अटैक से गुजर गए थे। घर में उसकी बूढ़ी बीमार मां थी, जिन्हें गठिया ने घेर रखा था, और एक छोटी बहन थी, निशा, जो 12वीं में पढ़ती थी और जिसकी आंखों में कॉलेज जाने के सपने थे।
पिता के जाने के बाद घर की सारी जिम्मेदारी नवीन पर आ गई थी। उसने ग्रेजुएशन की पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी थी और पिछले 2 सालों से एक अच्छी नौकरी की तलाश में भटक रहा था। कभी किसी दुकान पर सेल्समैन का काम मिलता, तो कभी किसी फैक्ट्री में मजदूरी। लेकिन कहीं भी टिक नहीं पाया। मां की दवाइयों का खर्चा, निशा की फीस, घर का किराया, सब कुछ जैसे पहाड़ बनकर उसके सामने खड़े थे।
हर सुबह वह मंदिरों की चौखट पर माथा टेकता, हर इंटरव्यू पूरी लगन से देता, पर शायद किस्मत रुठी हुई थी। घर में अक्सर फाकों की नौबत आ जाती। मां चुपचाप अपनी जर्द सहती रहती, पर नवीन से अपने बेटे की आंखों में तैरती बेबसी देखी नहीं जाती थी।
भाग 2: उम्मीद की किरण
फिर महीनों की भागदौड़ और अनगिनत ठोकरों के बाद आखिरकार उम्मीद की एक किरण नजर आई। उसे शहर की एक बड़ी टेक्सटाइल कंपनी “अवध टेक्सटाइल्स” में जूनियर असिस्टेंट के पद के लिए चुन लिया गया था। तन्हा बहुत ज्यादा तो नहीं थी, पर कम से कम इतनी थी कि घर का गुजारा चल सकता था। मां की दवाइयां आ सकती थीं और निशा की पढ़ाई जारी रह सकती थी।
जिस दिन उसे अपॉइंटमेंट लेटर मिला, उस दिन उनके छोटे से घर में जैसे दिवाली मन रही थी। मां ने अपनी पुरानी संदूक से निकालकर लड्डू बनाए थे और निशा ने अपने भाई के लिए अपने हाथों से एक सुंदर सा कार्ड बनाया था। नवीन की आंखों में महीनों बाद खुशी के आंसू थे। उसने मां के पैर छूकर वादा किया, “मां, अब देखना, मैं सब ठीक कर दूंगा।”

भाग 3: पहला दिन
आज उसका नौकरी पर पहला दिन था। सुबह वह जल्दी उठा। मां ने उसके लिए दही-चीनी का शगुन किया। निशा ने उसका पुराना सा पर साफ सुथरा किया हुआ शर्ट दिया। “देखो भैया, आज मेरे हीरो लग रहे हो।” नवीन मुस्कुराया। उसने मां का आशीर्वाद लिया, बहन को गले लगाया और घर से निकल पड़ा।
अवध टेक्सटाइल्स का ऑफिस शहर के दूसरे छोर पर हजरतगंज के पास था। वहां पहुंचने के लिए उसे लोकल ट्रेन पकड़नी पड़ती थी। वो लखनऊ के चारबाग रेलवे स्टेशन पहुंचा। सुबह के 9:00 बज रहे थे। प्लेटफार्म नंबर तीन पर तिल रखने की जगह नहीं थी। ऑफिस जाने वालों की भीड़, मजदूरों की भीड़, यात्रियों का शोर, स्टेशन अपनी पूरी रफ्तार में था।
उसकी ट्रेन गोमती एक्सप्रेस प्लेटफार्म पर लग चुकी थी और बस छूटने ही वाली थी। उसे जनरल डिब्बे में चढ़ना था, जिसके दरवाजे पर पहले से ही लोगों का हुजूम लटका हुआ था। वह तेजी से भीड़ को चीरता हुआ डिब्बे की तरफ बढ़ रहा था। उसका दिल जोरों से धड़क रहा था। पहले दिन ही लेट नहीं होना था।
भाग 4: इंसानियत की पुकार
जब वह डिब्बे के दरवाजे के पास पहुंचा, तभी उसकी नजर प्लेटफार्म पर पड़ी। एक बुजुर्ग बाबा, शायद 70-75 साल के रहे होंगे, भीड़ के धक्के से अपना संतुलन खोकर जमीन पर गिर पड़े थे। उनके हाथ में एक पुराना सा कपड़े का थैला था, जो खुलकर दूर जा गिरा था और उसमें से कुछ कागजात और एक स्टील का टिफिन बॉक्स बिखर गया था।
बाबा उठने की कोशिश कर रहे थे, पर शायद उनके पैर में चोट लग गई थी। लोग उन्हें देखकर भी अनदेखा करते हुए अपनी-अपनी ट्रेनों की तरफ भागे जा रहे थे। नवीन ने एक पल के लिए ठिटका। ट्रेन का हॉर्न बज चुका था। गार्ड ने हरी झंडी दिखा दी थी। अगर वह अभी नहीं चढ़ा तो ट्रेन निकल जाएगी। उसकी नौकरी, उसका पहला दिन, मां की दवाइयां, निशा की पढ़ाई सब कुछ उसकी आंखों के सामने घूम गया।
लेकिन फिर उसकी नजर उन गिरे हुए बाबा की बेबस आंखों पर पड़ी। उनमें दर्द था, लाचारी थी और शायद थोड़ी सी शर्मिंदगी भी। नवीन का दिल पसीज गया। उसके पिता हमेशा कहते थे, “बेटा, जिंदगी में सबसे बड़ा धर्म इंसानियत है। किसी गिरे हुए को उठाना भगवान की पूजा करने से भी बढ़कर है।”
भाग 5: निर्णय का क्षण
उसने एक पल भी नहीं सोचा। वो मुड़ा और दौड़कर बाबा के पास पहुंचा। “बाबा जी, उठिए। आप ठीक तो हैं?” उसने उन्हें सहारा देकर उठाया। उनके घुटने छिल गए थे और माथे पर भी हल्की चोट थी। नवीन ने बिखरा हुआ सामान उठाकर उनके थैले में रखा। टिफिन बॉक्स से रोटियां बाहर गिर गई थीं। ट्रेन अब धीरे-धीरे रेंगने लगी थी।
नवीन ने मुड़कर देखा। उसका डिब्बा आंखों से ओझल हो रहा था। उसकी ट्रेन छूट चुकी थी। बाबा ने कांपती आवाज में कहा, “बेटा, तेरी गाड़ी…” नवीन ने गहरी सांस ली। “कोई बात नहीं, बाबा जी। गाड़ी तो दूसरी मिल जाएगी। आप कहां जा रहे थे? आपको चोट तो ज्यादा नहीं लगी?”
बाबा की आंखों में आंसू आ गए। “बेटा, भगवान तेरा भला करें। मैं तो कानपुर जा रहा था अपनी बेटी से मिलने पर शायद किस्मत में नहीं था।” नवीन ने उन्हें प्लेटफार्म पर लगी एक बेंच पर बिठाया। पास के स्टॉल से पानी की बोतल लाकर दी।
भाग 6: मदद का हाथ
उसने उनके माथे पर लगी चोट को अपने रुमाल से साफ किया। “बाबा जी, आप चिंता मत कीजिए। मैं आपको अगली ट्रेन में बिठा दूंगा।” उसने बाबा के लिए कानपुर का टिकट लिया। उन्हें ट्रेन में बिठाया और उनके हाथ में अपनी जेब में बचे हुए ₹100 रख दिए। “बाबा जी, यह रख लीजिए, रास्ते में काम आएंगे।”
बाबा ने उसे लाखों दुआएं दीं। ट्रेन चल पड़ी और नवीन वहीं प्लेटफार्म पर खड़ा रह गया। अब उसे अपने ऑफिस की चिंता हुई। घड़ी देखी, 10:30 बज चुके थे। ऑफिस पहुंचने का टाइम 9:00 बजे था। वो पहले ही दिन डेढ़ घंटा लेट हो चुका था।
उसने स्टेशन से बाहर आकर एक ऑटो पकड़ा और सीधे ऑफिस की ओर चल पड़ा। रास्ते भर उसका दिल बैठा जा रहा था। क्या होगा? क्या उसे नौकरी से निकाल देंगे? उसने ऑटो वाले को जल्दी चलने को कहा।
भाग 7: ऑफिस में परेशानी
जब वह अवध टेक्सटाइल्स के आलीशान ऑफिस के गेट पर पहुंचा, तो 11:00 बज चुके थे। गार्ड ने उसे रोका। “कहां इतनी देर से?” “जी, मैं नया जूनियर असिस्टेंट हूं।”
“नवीन कुमार?” गार्ड ने रजिस्टर देखा। “हम तुम्हें तो 9:00 बजे आना था। जाओ अंदर। वर्मा साहब के केबिन में जाओ। वही बुला रहे हैं तुम्हें।” नवीन का दिल धड़क उठा। वो डरते-डरते रिसेप्शन पार करके मिस्टर वर्मा के शानदार केबिन के दरवाजे पर पहुंचा।
उसने धीरे से दरवाजा खटखटाया। “अंदर आ जाओ।” एक भारी आवाज आई। नवीन अंदर गया। मिस्टर वर्मा, 50 साल के एक रोबदार शख्स, अपनी बड़ी सी लेदर की कुर्सी पर बैठे थे। उनके चेहरे पर सख्ती थी।
“तो तुम हो नवीन कुमार? तुम्हें पता है टाइम क्या हुआ है?” “जी सर, 11:00 बज गए हैं।” “और तुम्हें कितने बजे आना था?” “9:00 बजे, सर।” “तो यह 2 घंटे कहां थे तुम?”
भाग 8: नौकरी का अंत
“सर, वो वो मैं स्टेशन पर…””क्या कहानी है। पहले ही दिन बहाने बनाना शुरू। लगता है तुम्हें इस नौकरी की कोई कदर नहीं है। हमारे यहां ऐसे लापरवाह और झूठे लोगों के लिए कोई जगह नहीं है। तुम जा सकते हो। तुम्हारी नौकरी खत्म।”
नवीन के पैरों तले जमीन खिसक गई। “सर, प्लीज, मेरी बात तो सुनिए। मैं सच कह रहा हूं। मुझे इस नौकरी की बहुत जरूरत है।” “गेट आउट।” वर्मा चिल्लाए। “सिक्योरिटी, इसे बाहर निकालो।”
दो सिक्योरिटी गार्ड्स आए और नवीन को लगभग घसीटते हुए ऑफिस से बाहर ले गए। नवीन ऑफिस के गेट के बाहर सड़क पर खड़ा था। उसकी आंखों में आंसू थे। जिल्लत और बेबसी का ऐसा एहसास उसे जिंदगी में पहली बार हुआ था।
भाग 9: घर की वापसी
उसने एक बुजुर्ग की मदद की थी और सजा में उसकी नौकरी चली गई। क्या इंसानियत की यही कीमत थी? वो भारी मन से घर लौटा। मां और निशा दरवाजे पर ही उसका इंतजार कर रही थीं। उसके उतरे हुए चेहरे को देखकर वे समझ गईं कि कुछ बुरा हुआ है।
जब नवीन ने रोते हुए सारी बात बताई, तो मां ने उसे गले से लगा लिया। “बेटा, तूने कुछ गलत नहीं किया। तूने इंसानियत निभाई है। नौकरी आज गई है। कल दूसरी मिल जाएगी। पर अगर आज तू उस बाबा को छोड़कर आ जाता, तो तेरा जमीर तुझे ही जिंदगी भर कचोटता। मुझे तुझ पर गर्व है।”
निशा भी अपने भाई से लिपट गई। “भैया, अब दुनिया के सबसे अच्छे भाई हो।” मां और बहन के प्यार ने नवीन के जख्मों पर मरहम तो लगाया, पर भविष्य की चिंता का अंधेरा और भी गहरा हो गया था।
भाग 10: संघर्ष की नई शुरुआत
अगले कुछ महीने नवीन के लिए और भी मुश्किल भरे थे। उसने फिर से नौकरी की तलाश शुरू की, पर कहीं बात नहीं बनी। घर का सामान बिकने लगा। मां की तबीयत और बिगड़ने लगी। निशा ने अपनी पढ़ाई छोड़कर सिलाई का काम शुरू करने का सोचा, पर नवीन ने उसे रोक दिया।
वो अब और भी ज्यादा मेहनत करने लगा। दिन में वह एक कूरियर कंपनी में डिलीवरी बॉय का काम करता और रात में एक ढाबे पर बर्तन बांधता। वो थक कर चूर हो जाता, पर उसने हिम्मत नहीं हारी। उसके दिल में एक आग जल रही थी। खुद को साबित करने की आग।
भाग 11: सफलता की ओर
उसने अपनी मेहनत और अच्छे व्यवहार को उसके सुपरवाइजर ने नोटिस किया। एक दिन सुपरवाइजर ने उसे अपने पास बुलाया। “नवीन, तुम बहुत मेहनती लड़के हो। कंपनी एक नया लॉजिस्टिक्स हब खोल रही है। हमें वहां एक भरोसेमंद असिस्टेंट मैनेजर की जरूरत है। क्या तुम यह जिम्मेदारी संभालोगे?”
नवीन को अपने कानों पर यकीन नहीं हुआ। “सर, मैं तो सिर्फ 12वीं पास हूं।” सुपरवाइजर मुस्कुराए। “नवीन, डिग्री से ज्यादा जरूरी नियत और मेहनत होती है, और वह तुममें कूट-कूट कर भरी है।”
यह नवीन की जिंदगी का पहला बड़ा मोड़ था। उसने वह नौकरी स्वीकार कर ली। अब वो डिलीवरी बॉय नहीं था। उसके हाथ में एक टीम थी। एक जिम्मेदारी थी।
भाग 12: सफलता की ऊंचाई
उसने दिन रात एक कर दिया। अपनी सूझबूझ और ईमानदारी से उसने लॉजिस्टिक्स हब के काम को इतना बेहतर बना दिया कि कंपनी का मुनाफा कई गुना बढ़ गया। कंपनी के मालिक मिस्टर सिंघानिया उसकी तरक्की को देख रहे थे।
समय का पहिया घूमता रहा। 10 साल बीत गए। इन 10 सालों में लखनऊ शहर बदल गया था और नवीन की दुनिया भी। वो अब नवीन लॉजिस्टिक्स का मालिक था। उसने अपनी कूरियर कंपनी खोल ली थी, जो आज शहर की सबसे बड़ी और सबसे भरोसेमंद लॉजिस्टिक्स कंपनियों में से एक थी।
भाग 13: परिवार की खुशहाली
उसने राजाजीपुरम में ही एक बड़ा सुंदर सा घर बनवा लिया था, जहां उसकी मां अब आराम से रहती थी। निशा ने अपनी पढ़ाई पूरी करके एक नामी कॉलेज में लेक्चरर बन गई थी। नवीन अब शहर का एक जाना माना नाम था। लोग उसकी सफलता की कहानी सुनाते थे।
पर उससे ज्यादा उसकी ईमानदारी और दरियादिली की मिसालें देते थे। उसने अपनी कंपनी में सैकड़ों बेरोजगार युवाओं को नौकरियां दी थीं। वह अक्सर गरीबों और जरूरतमंदों की चुपचाप मदद करता रहता था।
भाग 14: एक मुलाकात
लेकिन वह आज भी जमीन से जुड़ा हुआ था। वो आज भी कभी-कभी चारबाग स्टेशन जाता और प्लेटफार्म नंबर तीन पर उस जगह खड़ा हो जाता जहां उसकी ट्रेन छूट गई थी। वो उस दिन को याद करता, उस गिरे हुए बाबा को याद करता और मिस्टर वर्मा की कही बातों को याद करता।
उसके मन में कोई कड़वाहट नहीं थी। बस एक अजीब सा सुकून था। और मिस्टर वर्मा किस्मत का खेल देखिए। अवध टेक्सटाइल्स 10 साल पहले ही बंद हो चुकी थी। वर्मा की अकड़ और गलत फैसलों ने कंपनी को दिवालिया कर दिया था।
भाग 15: पुनर्मिलन
एक दिन नवीन अपने आलीशान ऑफिस में बैठा था। उसकी सेक्रेटरी अंदर आई। “सर, आपसे कोई मिस्टर वर्मा मिलने आए हैं। कह रहे हैं, बहुत जरूरी काम है।” नवीन का दिल एक पल के लिए धड़क उठा। वर्मा, क्या यह वही वर्मा थे?
उसने कहा, “भेज दो।” दरवाजा खुला और अंदर एक बूढ़ा, थका हुआ, झुका हुआ शख्स दाखिल हुआ। कपड़े मैले थे। चेहरे पर गहरी चिंता की लकीरें थीं। यह वही मिस्टर वर्मा थे। पर वक्त ने उनका सारा रब छीन लिया था।
उन्होंने नवीन को नहीं पहचाना। वह उसे कंपनी का मालिक समझकर हाथ जोड़े खड़े हो गए। “साहब, मेरा नाम वर्मा है। मैं बहुत बड़ी मुसीबत में हूं। मेरा बेटा उस पर बहुत कर्ज हो गया है। साहूकार उसे जान से मारने की धमकियां दे रहे हैं। साहब, आप बड़े आदमी हैं। मेरी कुछ मदद कर दीजिए। मैं आपके यहां कोई भी नौकरी कर लूंगा। झाड़ू लगा लूंगा। पर मेरे बेटे को बचा लीजिए।”
भाग 16: दया और करुणा
नवीन चुपचाप उन्हें देखता रहा। वही आदमी जिसने उसे लापरवाह और झूठा कहकर नौकरी से निकाल दिया था। आज उसके सामने गिड़गिड़ा रहा था। नवीन ने उन्हें उठाया। “बैठिए वर्मा जी।”
नवीन ने पानी मंगाया। वर्मा कांपते हाथों से पानी पीने लगे। “मैं तुमसे माफी मांगता हूं। मैंने तुम्हारी कदर नहीं की। आज भगवान ने मुझे उसी चौराहे पर ला खड़ा किया है।”
नवीन ने कहा, “आपकी गलती माफ की जा सकती है, वर्मा जी। लेकिन क्या आपने कभी सोचा कि आपने कितनों के जीवन को प्रभावित किया है?”
भाग 17: नया अध्याय
नवीन ने वर्मा जी के बेटे के सारे कर्ज का हिसाब पता करने को कहा और उसे आज ही चुका दिया। “आपकी उम्र हो गई है। अब आप आराम कीजिए। आज से हर महीने आपके घर खर्चा पहुंचेगा।”
वर्मा रोते हुए बोले, “बेटा, तुम देवता हो।” नवीन मुस्कुराया। “देवता नहीं, वर्मा जी। बस एक इंसान, जिसे किस्मत ने सिखा दिया कि इंसानियत से बड़ा कोई धर्म नहीं होता है।”
उस दिन वर्मा एक बदले हुए इंसान बनकर उस ऑफिस से निकले। नवीन ने ना सिर्फ उनके बेटे की जान बचाई, बल्कि उनके अंदर के बुझ चुके इंसान को भी फिर से जिंदा कर दिया।
भाग 18: अनजानी मंजिलें
बाबा, जो स्टेशन पर गिरे थे, नवीन ने उन्हें बहुत ढूंढा, पर वह फिर कभी नहीं मिले। शायद वह सच में भगवान के भेजे हुए कोई दूत थे, जो नवीन की किस्मत बदलने आए थे।
भाग 19: एक नई शुरुआत
यह कहानी हमें सिखाती है कि जिंदगी कब, कहां, कौन सा मोड़ ले ले, कोई नहीं जानता। पर एक चीज जो हमेशा हमारे साथ रहती है, वह है हमारी नेकी और हमारी इंसानियत।
नवीन की छूटी हुई ट्रेन ने उसे उसकी मंजिल तक पहुंचा ही दिया था। अगर इस कहानी ने आपके दिल को छुआ है, तो इस वीडियो को एक लाइक जरूर करें। हमें कमेंट्स में बताएं कि क्या आप भी मानते हैं कि नेकी का फल हमेशा मिलता है, भले ही देर से मिले।
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