भीड़भाड़ वाला रेलवे स्टेशन, प्लेटफार्म नंबर तीन। शाम का वक्त था, चारों ओर शोरगुल, ट्रेनों की सीटी, कुलियों की भागदौड़ और यात्रियों की आवाजें। इसी शोर में, एक छोटी सी बच्ची सोनू, फटे पुराने कपड़ों में जमीन पर बैठी थी। उसके हाथों में पॉलिश का डिब्बा और ब्रश था, पैरों में टूटी-फूटी चप्पल। मासूम आंखों में उम्मीद थी, लेकिन चेहरा धूल से सना हुआ था। वह हर आने-जाने वाले से गुजारिश करती, “साहब, जूते पॉलिश करा लो, सिर्फ ₹5 लगेंगे।” मगर लोग उसे ऐसे देखते जैसे वह कोई इंसान नहीं, बस एक बोझ हो।

कुछ लोग उसे दुत्कारते, कुछ बिना सुने आगे बढ़ जाते। लेकिन सोनू हर ठोकर खाकर भी मुस्कुराने की कोशिश करती। स्टेशन ही उसका घर था, फर्श उसका बिस्तर और आसमान उसकी छत। कभी-कभी पूरे दिन में उसे सिर्फ ₹10 ही मिल पाते, जिससे वह बासी ब्रेड या ठंडी समोसा खरीदकर खा लेती। उसके पास कोई मां नहीं थी जो खाना बना सके, कोई बाप नहीं था जो उसकी देखभाल कर सके। जब कोई उससे पूछता, “बेटी, तेरा घर कहां है?” तो वह बस इतना कहती, “मुझे याद नहीं, बस इतना याद है कि मैं बहुत छोटी थी और रोते-रोते यहां आ गई थी।”

.

.

 

एक दिन, उसी स्टेशन पर एक बड़ी काली गाड़ी आकर रुकी। उसमें से शहर के मशहूर उद्योगपति अरुण मल्होत्रा उतरे, सूट-बूट में। सोनू ने सोचा, “यह तो कोई बड़ा आदमी है, अगर इनके जूते पॉलिश करूंगी तो अच्छे पैसे मिलेंगे।” वह दौड़कर अरुण के पास गई और बोली, “साहब, आपके जूते पॉलिश कर दूं, सिर्फ ₹5 दे देना।” अरुण ने जब सोनू को देखा तो उनके दिल की धड़कन तेज हो गई। उसके चेहरे की मासूमियत, उसकी आंखें कुछ जानी-पहचानी लगीं।

अरुण ने धीरे से पूछा, “बेटी, तेरा नाम क्या है?” सोनू ने जवाब दिया, “सोनू।” अरुण ठिठक गए, उनकी खोई हुई बेटी अनाया को भी सब प्यार से सोनू बुलाते थे। अरुण की आंखें भर आईं, उन्होंने कांपते होठों से पूछा, “बेटा, तुम्हारे पास कोई पुरानी तस्वीर है? कोई निशानी?” सोनू ने सिर झुका लिया, “बस यह पायल है, बचपन से मेरे पैरों में है।” अरुण ने जैसे ही पायल देखी, उनके पैरों तले जमीन खिसक गई। वही चांदी की पायल, जो उन्होंने अपनी बेटी के पहले जन्मदिन पर खुद बनवाई थी।

अरुण फूट-फूट कर रोने लगे, सोनू हैरान थी। भीड़ इकट्ठी हो गई, लोग तमाशा देखने लगे। अरुण ने सोनू से कहा, “अगर तू मेरी बेटी नहीं निकली, तो मैं तुझे कभी परेशान नहीं करूंगा।” सोनू डर गई, बोली, “अगर आप झूठे निकले तो मुझे बेच देंगे, फिर मैं कहां जाऊंगी?” अरुण ने भगवान की कसम खाते हुए कहा, “अगर तू मेरी बेटी नहीं भी निकली, तो भी तुझे बेटी बनाकर रखूंगा।”

अस्पताल में डीएनए टेस्ट हुआ। रिपोर्ट आई, डॉक्टर ने मुस्कराते हुए कहा, “मिस्टर अरुण, बधाई हो, यह बच्ची सचमुच आपकी ही बेटी है।” अरुण ने सोनू को गले से लगा लिया, “अनाया, मेरी गुड़िया, तू सच में मेरी बेटी है।” सोनू भी रोते हुए उनके सीने से लिपट गई, “पापा, सच में मेरे पापा।”

अरुण ने तुरंत संध्या को फोन किया, “अनाया मिल गई है।” संध्या अस्पताल पहुंची, जैसे ही उसने अनाया को देखा, दौड़कर उसे गले लगा लिया। पूरा अस्पताल भावुक हो उठा। अनाया अपनी मां की गोद में सिसक-सिसक कर रो रही थी। परिवार का पुनर्मिलन हुआ, अरुण, संध्या और अनाया बरसों बाद एक साथ खड़े थे। लोगों की भीड़ ताली बजा रही थी, कोई दुआएं दे रहा था।

यह कहानी साबित करती है कि सच्चा प्यार और अपनेपन का रिश्ता वक्त के साथ फिर जुड़ जाता है। खून के रिश्ते और दिल का प्यार किसी भी दूरी, किसी भी गलतफहमी से बड़े होते हैं।