ज़ैनब की कहानी: एक मां की ताकत
दोपहर की तीखी धूप ने दिल्ली शहर की सड़कों को जैसे तपिश की चादर में लपेट लिया था। सूरज किसी जिद्दी बच्चे की मानिंद हो चला था, जो किसी कीमत पर नरम रोशनी देने को राजी नहीं था। उस झुलसाती गर्मी में एक दुबली-पतली, थकी-हारी औरत अपने सीने से चिपके 9 महीने के बच्चे को उठाए बसीदा कपड़ों में एक आलीशान शादी हॉल के बाहर आ खड़ी हुई। उसका लिबास बेहद पुराना था, जगह-जगह से फटा हुआ, गर्द गुबार से सना हुआ। पांव नंगे थे। बस एक टूटी हुई चप्पल किसी तरह उसके पांव से लटक रही थी। उसके हाथ में एक पुराना मुड़ाता सा दावतनामा था, जिस पर ना कोई नाम ना कोई पहचान। उस औरत का नाम था ज़ैनब बी। कभी जिन आंखों में ख्वाब पलते थे, आज वही आंखें सिर्फ एक हकीकत दिखाने को बेचैन थीं। आज उसके साबिक शौहर इंस्पेक्टर राहुल शर्मा की शादी थी। और ज़ैनब उसी शादी हॉल के बाहर खड़ी थी। ना मेहमान बनकर ना बदले की आग लिए, बस एक मां की हैसियत से।
ज़ैनब ने हिचकते कदमों से गेट की तरफ बढ़ना शुरू किया। हर कदम जैसे किसी जख्म की गवाही दे रहा था। गेट के बाहर एक सिक्योरिटी गार्ड खड़ा था जिसने उसकी हालत देखती ही भौहें चढ़ा ली। जैसे वह किसी भिखारिन को झिड़कने को तैयार हो। “अरे मैडम, कहां चल पड़ी? दावतनामा दिखाओ।” ज़ैनब ने खामोशी से मुड़ा हुआ कार्ड उसकी तरफ बढ़ा दिया। गार्ड ने कार्ड देखा और ठठाकर हंस पड़ा। “इस पर तो नाम भी नहीं लिखा है। कहां से उठा लाई यह? आप अंदर नहीं जा सकती।” ज़ैनब की नजरें झुकी हुई थीं। जबान खोलने की कोशिश की, मगर अल्फाज़ गले में अटक गए। उसे मालूम था कि उसके पास कोई ठोस वजह नहीं। लेकिन दिल में एक चिंगारी थी। एक मां की चिंगारी। अंदर से शादी के गीत, बैंड बाजे और हंसी ठिठोली की आवाजें आ रही थीं। मेहमान खुश थे। सोने के जेवर और महंगे कपड़े चमक रहे थे। ज़ैनब उन सबके दरमियान जैसे कोई धुंधली परछाई बन गई थी।
अचानक हॉल के अंदर से किसी की नजर गेट की ओर पड़ी। वो खुद राहुल था, जो दूल्हा बना सफेद शेरवानी में मुस्कुरा रहा था। लेकिन जैसे ही उसकी नजर ज़ैनब पर पड़ी, उसकी मुस्कुराहट जैसे जमकर रह गई। वह तेजी से बाहर आया, चेहरे पर सख्ती और नाराजगी साफ छलक रही थी। “ज़ैनब, तुम यहां क्या कर रही हो?” ज़ैनब ने नजरें नहीं उठाई। बस बच्चे को सीने से लगाकर धीमे से बोली, “मैं तुमसे कुछ नहीं मांगने आई। बस चाहती हूं कि एक बार अपने बेटे को देख लो।” राहुल की आंखों में गुस्से की चमक आ गई। “यह कोई तमाशा है? मेरी शादी है और तुम यहां मजमा लगाने आ गई हो। निकलो यहां से।” करीब खड़े मेहमान अब जिज्ञासा से देखने लगे। किसी ने मोबाइल निकाल लिया। कोई वीडियो बनाने लगा। ज़ैनब खामोश रही। उसकी आंखों में आंसू थे, मगर वो रोई नहीं। “यह तुम्हारा बेटा है, राहुल,” उसने पुकारा। “बस देख लो इसे और कुछ नहीं कहूंगी।” लेकिन राहुल का चेहरा पत्थर हो गया। “मैं तुम्हें जानता भी नहीं। यह बच्चा मेरा नहीं है। फौरन निकल जाओ यहां से वरना पुलिस बुला लूंगा।” बच्चा जोर-जोर से रोने लगा। ज़ैनब का दिल कांप उठा, मगर वह वहीं खड़ी रही। राहुल ने गुस्से में आकर ज़ैनब को धक्का दे दिया। वह जमीन पर गिर गई। चप्पल एक ओर जा गिरी और बच्चा चीखने लगा। भीड़ चुप हो गई। किसी ने आगे बढ़कर मदद नहीं की। ज़ैनब उठी, बच्चे को चुप कराया और लंगड़ाते कदमों से गेट से दूर जाने लगी।
पीछे से दुल्हन की आवाज आई, “राहुल, यह औरत कौन थी?” राहुल ने सिर्फ इतना कहा, “एक पुरानी दीवानी है। कुछ भी बक सकती है।” मगर अब राहुल की आवाज में वो यकीन नहीं था। ज़ैनब जा चुकी थी। लेकिन उसका सच एक बीज की तरह राहुल की जिंदगी में बोया जा चुका था, जो आने वाले दिनों में कांटों की सूरत अख्तियार करेगा। शादी हॉल के बाहर जो लम्हे बीते, वह राहुल के लिए किसी धमाके से कम ना थे। और ज़ैनब के लिए जैसे नंगे पांव खारदार रास्ते पर चलना। ज़ैनब अभी थोड़ी ही दूर गई थी कि कुछ मेहमान जो राहुल को जानते थे, फुसफुसाते हुए गेट की ओर खींचे चले आए। एक ने राहुल के कंधे पर हाथ रखकर पूछा, “यार, यह औरत कौन थी? अजीब इल्जाम लगा रही थी।” राहुल ने झूठी मुस्कान ओढ़ ली। “एक पुरानी जान पहचान वाली है। पागल हो गई है। कुछ साल पहले घर में काम करती थी। अब आकर ड्रामा कर रही है।” इससे पहले कि कोई और सवाल करता, अंदर से दुल्हन पायल अपनी मां के साथ बाहर आ गई। उसके चेहरे पर गंभीरता थी। आंखों में बेचैनी। “राहुल, क्या तुमने कुछ छुपाया है? वो औरत कुछ और कह रही थी।” राहुल ने फौरन झूठ गढ़ा। “कुछ नहीं, वह बस ब्लैकमेल करना चाहती है। मेरा उससे कोई रिश्ता नहीं था। झूठ बोल रही है।”
पायल की मां ने राहुल को शक भरी नजरों से देखा। “मगर तुम्हारा रिएक्शन कुछ और कहानी कह रहा था। इतना गुस्सा अगर वह झूठी ही होती तो तुम्हें परेशान होने की जरूरत नहीं थी।” राहुल ने बात बदलने की कोशिश की। “चलो अंदर। मेहमान देख रहे हैं।” उधर ज़ैनब पास के एक सुनसान पार्क की तरफ जा रही थी। वहां का एक बेंच धूल से अटा था, मगर वह बैठ गई। बच्चा अब भी सिसक रहा था और ज़ैनब के दिल में जैसे पूरी दुनिया का बोझ समा गया हो। उसने धीरे-धीरे अपना पुराना थैला खोला जिसमें वही लकड़ी का डिब्बा रखा था। वही डिब्बा जिसे उसने अपनी मां की मौत के बाद सीने से लगा लिया था। डिब्बे में अल्ट्रासाउंड की रिपोर्ट, यूसुफ का जन्म प्रमाण पत्र, कुछ पुरानी तस्वीरें और एक खास दस्तावेज था। बीबी नूरजहां की वसीयत। ज़ैनब की नजरें उसी कागज पर टिक गई जैसे अब भी वहीं से उसे हौसला मिल रहा हो।
उधर शादी हॉल के अंदर एक बुजुर्ग खातून, जिन्हें सब आशा आंटी कहकर बुलाते थे, ने अपनी सीट से सर उठाया। वो राहुल के परिवार की पुरानी जान पहचान वाली थी। आशा आंटी ने कुछ देर पहले के मंजर को याद किया और पायल की मां से धीरे से कहा, “मैं उस लड़की को पहचानती हूं। ज़ैनब नाम है उसका। तुम्हारे बेटे राहुल के साथ कुछ साल पहले उसका रिश्ता था।” पायल चौंक पड़ी। “क्या? लेकिन राहुल ने तो कहा था कि वह कभी उस औरत से मिला ही नहीं।” आशा आंटी ने गहरी संजीदगी से जवाब दिया, “बेटी, सच को चेहरे से पहचाना जा सकता है। और वह औरत झूठ नहीं बोल रही थी।” अब अंदर खलबली मच गई थी। मेहमानों की निगाहें बार-बार गेट की तरफ जा रही थीं। कुछ लोगों ने वह वीडियो क्लिप, जिसमें राहुल उस गरीब औरत को धक्का दे रहा था, चुपचाप सोशल मीडिया पर अपलोड कर दिया था।
राहुल अब भी अंदर ही अंदर घबरा रहा था। पायल अब पूरी तरह संजीदा हो चुकी थी। “मुझे उस औरत से मिलना है। अगर तुमने कुछ भी छुपाया है राहुल, तो यह शादी यहीं रुक जाएगी।” बाहर पार्क में ज़ैनब ने अपने बेटे के चेहरे पर हाथ फेरा और खामोशी से आसमान की तरफ देखा। “अल्लाह, तू ही इंसाफ करने वाला है। मुझे कुछ नहीं चाहिए। बस यह बच्चा एक दिन सच्चाई जान ले और कभी यह ना सोचे कि उसकी मां ने कमजोरी दिखाई थी।” उसे अंदाजा नहीं था कि उसके यह खामोश अल्फाज जल्द ही इस शहर के सबसे ताकतवर लोगों के जमीर हिला देंगे। और राहुल वो अब भी झूठ का सहारा लिए खड़ा था।
मगर वक्त अब उसका नहीं रहा था। शादी हॉल की रौनक अब अजीब सी खामोशी में तब्दील हो रही थी। फिजा में वह कहकहे, गीत और मुबारकबादें नहीं थी, बल्कि उलझन, शुभात और सरगोशियों का शोर फैलने लगा था। मेहमानों के चेहरों पर अब मुस्कान की जगह हैरत और बेजारी थी। कई मोबाइल स्क्रीन पर निगाहें गड़ी थीं। जहां राहुल की वीडियो घूम रही थी। एक बसीदा लिबास में लिपटी औरत को धक्का देता हुआ। अंदर पायल एक कोने में राहुल के साथ खड़ी थी। उसकी आंखों में उलझन थी और लहजे में वह यकीन नहीं रहा था जो एक दुल्हन के चेहरे पर झलकता है। “राहुल, मुझे सच चाहिए। क्या तुमने वाकई ज़ैनब से शादी की थी? क्या वो बच्चा तुम्हारा है?” राहुल जैसे पहले से कोई जवाब तैयार करके बैठा था। “पायल, तुम मुझ पर शक कर रही हो। वो औरत झूठ बोल रही है। कुछ साल पहले हमारे मोहल्ले में रहती थी। अब बदनाम करने आ गई है।”
मगर पायल की निगाहें राहुल के चेहरे से नहीं हट रही थीं। “तुम्हारे चेहरे पर सच नहीं। डर है राहुल और डर हमेशा कुछ छुपा रहा होता है।” इससे पहले कि राहुल कुछ कहता, आशा आंटी धीरे-धीरे उनके पास आ गई। वो एक सादा लिबास में बुजुर्ग औरत थी, जिन्हें घर का हर फर्द इज्जत से सुनता था। “पायल, बेटी, एक बात कहनी है। मैं उस लड़की को पहचानती हूं। राहुल और उसके रिश्ते की गवाह हूं।” पायल ने हैरानी से पूछा, “आपने खुद देखा है?” आशा आंटी ने सर हिलाया। “हां। 3 साल पहले जब राहुल किराए के मकान में रहता था। ज़ैनब उसके साथ थी। मैंने उन्हें कई बार बाजार में साथ देखा था। फिर एक दिन वह लड़की गायब हो गई। हमने सोचा कोई अस्थाई रिश्ता था लेकिन आज जो वह कह रही है उसमें वजन है।”
राहुल अब पसीने में तर-बतर था। “यह सब पुरानी बातें हैं। वह बदला लेना चाहती है।” पायल ने धीमे लहजे में कहा, “और जो तुम छुपा रहे हो वह भी पुरानी बात है या सच्चाई?” उधर पार्क में ज़ैनब अब भी बेंच पर बैठी थी। बच्चा थक कर सो चुका था। उसकी सांसे अब एक सी हो गई थीं। ज़ैनब ने अपना लकड़ी का डिब्बा खोला और उसमें से एक-एक दस्तावेज निकालने लगी। सबसे पहले अल्ट्रासाउंड रिपोर्ट थी, जिस पर ज़ैनब का नाम था। मगर पिता का कॉलम खाली था। फिर था यूसुफ का जन्म प्रमाण पत्र, जिसमें मां का नाम दर्ज था, मगर पिता का नाम फिर से गायब। और फिर वह सबसे कीमती कागज, बीबी नूरजहां की वसीयत। वसीयत में लिखा था, “मैं बीबी नूरजहां अपनी बेटी ज़ैनब को नूर फाउंडेशन की मुकम्मल वारिस मुकर्रर करती हूं। मेरी तमाम जायदाद, संस्था की मिल्कियत और हमारा नाम अब उसकी अमानत है। यह वसीयत मेरे इंतकाल के बाद कानूनी रूप से नाफिज उल अमल होगी।” ज़ैनब ने एक गहरी सांस ली। उसके चेहरे पर कोई घमंड नहीं था। ना ही कोई तकब्बुर। बस एक ठहराव था। वो ठहराव जो सिर्फ सब्र के बाद नसीब होता है।
उसे मालूम था कि वह चाहती तो अदालत जा सकती थी। मीडिया को बुला सकती थी। मगर उसका मकसद अलग था। वह यहां राहुल को गिराने नहीं आई थी। वह तो बस अपने बेटे यूसुफ के लिए सच्चाई की एक झलक लेकर आई थी। ताकि एक दिन वो यह ना सोचे कि उसकी मां खामोश रही थी। उसी वक्त एक काली गाड़ी शादी हॉल के बाहर आकर रुकी। उसमें से एक व्यक्ति बेहद वकार से भरे बाहर निकले। यह थे हाजी यामीन, नूर फाउंडेशन के ट्रस्टी। वह शादी में दावत पर आमंत्रित थे और बीवी नूरजहां के पुराने अजीज भी। जब वह गेट के पास पहुंचे तो दो मेहमानों की बातें उनके कानों में पड़ी। “क्या वह औरत वाकई में नूरजहां की बेटी थी?” “कह नहीं सकते, लेकिन सुना है उसके पास दस्तावेज हैं और बच्चा शायद राहुल का है।” हाजी यामीन का चेहरा संगीन हो गया। “ज़ैनब, नूरजहां की बेटी, वो यहां है।”
उन्होंने अंदर जाने के बजाय सीधा पार्क की ओर कदम बढ़ाए। दिल में कुछ था जो खटकने लगा था। शायद वक्त आ गया था कि ज़ैनब को उसका मुकाम वापस मिले और राहुल को आईना दिखाया जाए। शाम की रोशनी अब मंद पड़ने लगी थी और शादी हॉल की रंगीन बत्तियां जैसे उस झूठ के बोझ से थक चुकी थीं जो इन दीवारों के पीछे छुपा बैठा था। हाजी यामीन तेज कदमों से पार्क की ओर बढ़ रहे थे। चेहरे पर पुरसुकून संजीदगी और सीने में एक पुराना कर्ज लिए। जब वह पहुंचे तो सामने एक बेंच पर बैठी औरत को देख उनके कदम जैसे जमीन में धंस गए। ज़ैनब उनकी आवाज धीमी थी। मगर कांपती हुई ज़ैनब ने सर उठाया। उसकी आंखों में थकान थी, मगर एक पहचान भी। वो धीरे से बोली, “अस्सलाम वालेकुम, हाजी साहब, क्या आपको मेरी मां याद हैं?” हाजी यामीन की आंखें भीग गईं। वो फौरन आगे बढ़े और ज़ैनब के पास बेंच पर बैठ गए। “याद है, बीबी नूरजहां जैसी औरत को कौन भूल सकता है, बेटी? मगर तुम कहां थी? हमने तुम्हें बहुत तलाश किया। तुम्हारी मां तुम्हें सब कुछ सौंप गई थी।”
ज़ैनब ने अपना लकड़ी का डिब्बा खोला और वसीयत का कागज हाजी साहब के हाथ में रख दिया। “मुझे पता था यह सब मेरे नाम है। मगर मुझे कुछ साबित नहीं करना था। मैं तो बस चाहती थी कि राहुल एक बार अपने बेटे को देख ले। पर उसने मुझे धक्का दे दिया।” हाजी यामीन की आंखों में अब गुस्सा था। ठहरा हुआ मगर सुलगता हुआ। “धक्का? उसने तुम्हें धक्का दिया? जानता भी है वो कि तुम कौन हो। तुम वो बेटी हो जिसके लिए तुम्हारी मां ने आखिरी सांस तक उस फाउंडेशन को जिंदा रखा ताकि एक दिन तुम उसे इज्जत से संभाल सको और उसने तुम्हें ठुकरा दिया।” ज़ैनब खामोश रही। वो सिर्फ अपने बच्चे के माथे पर हाथ फेरती रही, जो अब भी उसकी गोद में चैन से सोया था।
हाजी यामीन उठे। उनकी चाल में अब संजीदगी के साथ-साथ एक नरमी से उबलता गुस्सा था। “बेटी, अब वक्त आ गया है कि सच्चाई सबके सामने लाई जाए। उन्हें नहीं मालूम कि तुम कौन हो, मगर अब जानेंगे। और जो लोग तुम्हें नीचा दिखाने चले थे, वह खुद झुकेंगे।” उधर शादी हॉल में सब कुछ बदल चुका था। राहुल की पेशानी पर पसीना बह रहा था। पायल अब उस पर पूरी तरह से एतबार खो चुकी थी। “अगर तुमने वाकई कुछ नहीं छुपाया तो ज़ैनब को वापस बुलाओ। वह तुम्हें झूठा साबित नहीं करेगी अगर तुम सच्चे हो।” राहुल का चेहरा जर्द पड़ गया। अब सबके सामने पायल ने सख्ती से कहा, “या तो अभी बुलाओ या यह शादी यहीं खत्म।”
उसी वक्त हॉल के दरवाजे खुल गए। दरवाजे के बीचोंबीच खड़े थे हाजी यामीन। और उनके साथ एक दुबली मगर पुरकार औरत ज़ैनब, जिसके कंधे पर उसका बेटा सो रहा था। हॉल में जैसे खामोशी का तूफान आ गया। हर नजर उस ओर मुड़ गई। हाजी यामीन सीधा मंच की ओर बढ़े। माइक हाथ में लिया और बुलंद आवाज में कहा, “मैं हाजी यामीन, नूर फाउंडेशन का ट्रस्टी, सभी के सामने ऐलान करता हूं। यह खatoon ज़ैनब बी, बीबी नूरजहां की इकलौती बेटी और फाउंडेशन की कानूनी वारिस हैं। वही बेटी जिसे कुछ देर पहले इसी हॉल से बेइज्जत करके बाहर निकाल दिया गया था।”
हॉल में हलचल मच गई। किसी के मुंह खुले के खुले रह गए। कुछ ने नजरें झुका लीं। पायल की मां ने फौरन कानों को हाथ लगाया और धीमे से बुदबुदाई, “अरे, यह तो वही संस्था है जिसका सालाना बजट करोड़ों में है और हमने इसकी वारिस को धक्का दे दिया।” पायल का चेहरा फीका पड़ गया। वो अब ज़ैनब को उस नजर से देखने लगी जिससे कभी नहीं देखा था—इज्जत, वकार और असली ताकत। राहुल जो अब तक सन्न खड़ा था, धीरे-धीरे पीछे हटने लगा। मगर हाजी यामीन ने उंगली उठाकर कहा, “इंस्पेक्टर राहुल शर्मा, तुमने अपनी साबिक बीवी को सबके सामने झुठलाया, उसे धक्का दिया, उसके बेटे को यतीम कहा और एक मुअज्ज मां की वसीयत का अपमान किया। तुम्हारी वर्दी शायद तुम्हें बचा ले, मगर तुम्हारा जमीर नहीं।” राहुल का सर झुक गया।
अब हॉल में जो खामोशी थी वह शर्म की गहराई से निकली हुई थी। ज़ैनब ने ना कोई बदला मांगा, ना कोई ताना मारा। वो बस खामोश खड़ी रही और उसकी खामोशी में जो गूंज थी वह पूरे हॉल को सुनाई दे रही थी। शादी हॉल की रौनक अब किसी भारी बोझ सी लग रही थी। वो कालीने, वो चकाचौंध, वो गहनों की चमक अब सब मुरझा गया था। हर चेहरा हैरत से भरा था। हर जुबान खामोश, हर दिल शर्म से भीगा हुआ। स्टेज पर हाजी यामीन का ऐलान सब कुछ बदल चुका था। वो औरत जिसे चंद मिनट पहले एक फकीरनी समझकर दुत्कार दिया गया, अब उसी शहर की सबसे बड़ी फलाही संस्था की कानूनी वारिस बनकर खड़ी थी।
लोगों की निगाहें अब बार-बार ज़ैनब और राहुल के दरमियान घूम रही थीं। ज़ैनब अब भी वही सादगी से लिपटी हुई, वही टूटी चप्पल में। मगर अब उसकी खामोशी में अजीब सी ताकत थी। बच्चा अब भी उसके कंधे पर सो रहा था। शायद उसे भी एहसास था कि उसकी मां का वखार वापस लौट आया है। पायल का चेहरा स्याह हो चुका था। वो साकेत खड़ी थी। कल ही तो राहुल ने उससे कहा था कि वह एक ईमानदार मोअज जज पुलिस अफसर है। और आज उसकी असलियत सबके सामने नुमाया हो चुकी थी। पायल ने धीरे से राहुल की ओर देखा। “तुमने मुझसे झूठ बोला। तुमने एक मासूम औरत को जमीन पर गिराया और वो बच्चा, वो तुम्हारा ही बेटा है। है ना?” राहुल ने नजरें चुरा लीं। “मैं—I don’t know.” “नहीं, राहुल,” पायल की आवाज अब तेज थी। “तुम सब जानते थे। तुमने सिर्फ अपनी इज्जत बचाने के लिए एक मां की इज्जत रौंद दी।”
इसी लम्हे एक और आवाज गूंजी। हॉल के पिछले दरवाजे से दिल्ली पुलिस का एक सब इंस्पेक्टर अंदर आया। वर्दी में, हाथ में एक सरकारी कागज। “इंस्पेक्टर राहुल शर्मा, आप पर आवाम के साथ बदसलूकी, ओहदे का गलत इस्तेमाल और इंसानी वकार को नुकसान पहुंचाने के इल्जामात में महकमे की तहकीकात शुरू की गई हैं। आपको फौरन मुअत्तल किया जाता है।” राहुल के कदम लड़खड़ा गए। उसने इर्दगिर्द देखा। मगर अब हर आंख उसे हकारत से देख रही थी। मेहमानों में खलबली मच गई। जो कुछ देर पहले उसके साथ तस्वीरें ले रहे थे, अब चुपचाप पीछे हटने लगे। कुछ खवातीन तो इतनी दिलबरर्दाश्ता हुईं कि अपनी प्लेटें छोड़कर ही बाहर निकल गईं। किसी ने धीमे से कहा, “किसी को उसकी वर्दी से नहीं, उसकी इंसानियत से पहचाना जाता है।” ज़ैनब वहीं खड़ी रही, बिना कुछ कहे, बिना कुछ मांगे। ना शिकायत, ना इंतकाम, बस खामोशी। और उस खामोशी में हजार तूफान छुपे हुए थे।
पायल ने राहुल की अंगूठी उसके हाथ में फेंकी। “यह शादी नहीं हो सकती। मैं एक झूठे बेरहम इंसान के साथ अपनी जिंदगी बर्बाद नहीं कर सकती।” पायल के माता-पिता भी सन्न खड़े थे। उनके चेहरे शर्मिंदगी में डूबे हुए थे। पायल हॉल से निकल गई और उसके पीछे वह सारे ख्वाब भी जो राहुल ने बुने थे। सत्ता, शोहरत और इज्जत सब जमीन बोस हो गए। राहुल कुछ कहना चाहता था। मगर अल्फाज गले में अटक गए। उसे अब यह यकीन हो चला था कि चाहे वह हजार सफाइयां दे, हकीकत का पर्दा उठ चुका है। और वह पर्दा सिर्फ एक औरत ने उठाया, जिसके पांव में चप्पल नहीं थी। मगर किरदार आसमान जितना ऊंचा था।
ज़ैनब ने बच्चे को फिर से सीने से लगाया और हॉल से बाहर निकलने लगी। उसके कदम धीरे थे, मगर पुख्ता। दरवाजे से निकलते वक्त एक नौजवान लड़का आगे बढ़ा और उसकी चप्पल उठाकर पहनाने की कोशिश की। “माफ कीजिए बहन जी। हम सब गलत थे।” ज़ैनब ने बस हल्की सी मुस्कान दी। “वक्त सब कुछ दिखा देता है, भाई। बस सब्र करना आना चाहिए।” वो चली गई। पीछे रह गया एक उजड़ा हुआ हॉल। एक मुअत्तल पुलिस अफसर और सच्चाई की जीत। शादी हॉल से बाहर निकलते हुए ज़ैनब के चेहरे पर ना कोई फक्र था, ना फतह का एहसास। सिर्फ थकान थी और एक खामोश इत्मीनान जो सिर्फ उस इंसान को नसीब होता है जो झूठे इल्जाम के बावजूद सच पर कायम रहता है।
दिन ढल चुका था। आसमान पर हल्की सी सुर्खी थी, जैसे सूरज भी उस दिन का दर्द महसूस कर रहा हो। ज़ैनब अपने बेटे यूसुफ को गोद में लिए रिक्शा पकड़कर अपने कमरे की तरफ चली गई। वही कमरा जिसकी छत टपकती थी, जहां चटाई पर सोना मामूल था और जहां दीवार पर बीबी नूरजहां की एक पुरानी तस्वीर टंगी थी। आज वह तस्वीर कुछ और बोल रही थी। अंदर आते ही ज़ैनब ने बच्चे को लिटाया और अपना लकड़ी का डिब्बा सामने रख लिया। उसी डिब्बे में उसकी मां का वह खत भी था जिसे वह बार-बार पढ़ा करती थी जैसे वह अल्फाज उसकी रूह को थामे हुए हो।
“मेरी प्यारी ज़ैनब, तुम्हें शायद कभी सब कुछ विरासत में ना मिले। मगर मेरी दुआएं, मेरे ख्वाब और मेरी कुर्बानियां तुम्हें जरूर मिलेंगी।” ज़ैनब की आंखों से आंसू बह निकले। मां की याद आज और शिद्दत से आई। “अम्मी, आज आपकी बेटी ने किसी को हराया नहीं, लेकिन खुद को भी जीता नहीं।” अगली सुबह सूरज की पहली किरणों के साथ दरवाजे पर दस्तक हुई। ज़ैनब चौकी। जब दरवाजा खोला तो सामने खड़े थे हाजी यामीन। उनके साथ थी एक बापर्दा वकील खातून और नूर फाउंडेशन के दो सीनियर मेंबर्स। “बेटी, अब और खामोश रहना नुखसानदेह होगा। तुम्हारी मां की तमाम अमानतें अब तुम्हारे हवाले की जा रही हैं।” ज़ैनब ने कदम पीछे खींचे। “लेकिन मैं, मैं कैसे संभालूंगी? मैं तो एक मामूली औरत हूं। मुझे संस्था चलाने का कोई तजुर्बा नहीं।”
वकील खातून ने नरमी से एक भारी फाइलों का पुलिंदा उसके हाथ में रखा। “आपकी मां ने सिर्फ जायदाद नहीं छोड़ी। एक सोच छोड़ी है। यह संस्था सिर्फ आपकी मिल्कियत नहीं, आपकी जिम्मेदारी है।” ज़ैनब ने वह फाइलें थाम लीं। मगर उसका दिल अब भी हिचकिचा रहा था। “मैंने अपने लिए कुछ नहीं मांगा था। मैं तो बस चाहती थी कि यूसुफ का बाप उसे एक बार देख ले।” हाजी यामीन ने गहरी सांस ली। “और वह उस काबिल भी नहीं निकला। लेकिन जो लोग तुम्हें झूठा कह रहे थे, आज वही लोग तुम्हें सर आंखों पर बिठाने को मजबूर हैं।” उसी वक्त यूसुफ जाग गया। वो अपनी मां की गोद में आकर सिमट गया। ज़ैनब ने उसके माथे को चूमते हुए कहा, “बेटा, तुम्हारी मां कभी बदला नहीं चाहती थी। बस सच्चाई सामने आ जाए। यही काफी है।”
उस शाम नूर फाउंडेशन की गाड़ी ज़ैनब को उस नए दफ्तर ले गई, जहां उसकी मां बीबी नूरजहां ने अपनी जिंदगी गुजारी थी। बड़े दरवाजे पर आज पहली बार तख्ती लगी। ज़ैनब भी सरबराह नूर फाउंडेशन स्टाफ ने अदब से इस्तकबाल किया। कुछ ने नजरें झुका लीं। शायद बीती गलतफहमियों पर शर्मिंदा थे। ज़ैनब सीधे उस कमरे में गई जहां उसकी मां बैठा करती थी। मेज पर रखी तस्बीह, दीवार पर बच्चों की तस्वीरें, सब कुछ जस का तस था। उसने सोफे पर बैठकर मां के हाथों का लम्स महसूस करने की कोशिश की। “अम्मी, अब मैं छुप कर नहीं जिऊंगी। आपकी रोशनी को आगे बढ़ाऊंगी।” उस रात ज़ैनब ने पहली बार पलंग पर सुकून की नींद ली। जैसे बरसों की बेकरारी अब थम गई हो।
मगर उसे अंदाजा नहीं था कि राहुल की शिकस्त अब भी मुकम्मल नहीं हुई। असल नदामत तो अब शुरू होने वाली थी। नूर फाउंडेशन का दफ्तर अब एक नई सुबह की शुरुआत कर चुका था। पहले जहां सिर्फ बीबी नूरजहां की खुशबू थी, वहां अब ज़ैनब बी का नाम संजीदगी और खुलूस की पहचान बन चुका था। वह किसी चेयर पर्सन की तरह नहीं, एक खादिमा की तरह काम करती थी। सादा सफेद कमीज, हल्का सा दुपट्टा, बिना मेकअप का चेहरा, थकन के बावजूद एक सुकून जो सिर्फ सच बोलने वालों के चेहरों पर आता है।
ज़ैनब ने पहला हुक्म दिया। “हर यतीम बच्चे का तिब्बी मुआयना होगा और तमाम बेवाओं को नई सिलाई मशीनें दी जाएंगी।” इदारे के वह स्टाफ जो पहले उसे एक बेहाल औरत समझते थे, अब उसकी हर बात पर खामोशी से अमल करने लगे थे। क्योंकि अब वह जान चुके थे, यह औरत सिर्फ वारिस नहीं, एक मिशन है। मां की दुआ का जिंदा सबूत है। एक दोपहर ज़ैनब अपने दफ्तर में फाइलें तरतीब दे रही थी कि एक लिफाफा उसकी मेज पर आया। लिफाफे पर कोई नाम नहीं था। बस अंदर एक कागज पर हाथ से लिखी हुई तहरीर थी। “ज़ैनब, मैं गलत था। शायद सबसे ज्यादा तुम्हारे साथ और फिर उस बच्चे के साथ। अगर वक्त वापस आ सकता तो मैं सब कुछ बदल देता। मगर अब सिर्फ एक दुआ कर सकता हूं। यूसुफ, मुझे कभी माफ कर दे।”
राहुल ने वो खत पढ़ा और देर तक खामोशी से बैठी रही। ना आंखें नम हुईं, ना होठ कांपे। उसने वह खत तय करके दराज में रख दिया। “अब मेरा वक्त जज्बात के लिए नहीं, खिदमत के लिए है।” दूसरी तरफ दिल्ली के एक कोने में राहुल की जिंदगी बिखर चुकी थी। पुलिस महकमे ने उस पर तहकीकात शुरू कर दी थी। यूनिफार्म उससे वापस ली जा चुकी थी। दोस्तों ने रुख मोड़ लिया था। और पायल, जो कभी उसके साथ शादी के ख्वाब देखती थी, अब उसका नाम लेना भी गवारा नहीं करती थी।
एक दिन राहुल अपने पुराने दोस्त मनीष के साथ बैठा था, जो सोशल मीडिया पर वीडियो बनाता था। मनीष ने कहा, “राहुल, तू चाहे 10 बार सफाई दे ले, मगर जिस दिन तूने वह धक्का दिया, सब कुछ खत्म हो गया। तूने एक मां को जमीन पर गिराया और वही मां अब सब की आंखों का तारा बन गई है।” राहुल ने नजरें झुका लीं। “मैं बस यह चाहता हूं कि एक दिन यूसुफ मुझे देखे और मुझसे नफरत ना करे।” मनीष ने उसके कंधे पर हाथ रखा। “तो फिर खिदमत कर। जाकर इदारे में काम मांग। अगर ज़ैनब ने माफ ना भी किया तो अल्लाह कर देगा।”
यह बात राहुल के दिल में उतर गई। उस रात उसने पहली बार नींद की गोली नहीं ली। जमीर जागा था और उसके अंदर की सच्चाई से वह पहली बार मुखातिब हुआ था। अगले दिन राहुल नूर फाउंडेशन के दरवाजे पर खड़ा था। ना वर्दी थी, ना घमंड। साधारण कपड़े, गर्द से भरे जूते और हाथ में एक फाइल जिसमें उसकी इंजीनियरिंग की डिग्रियां थीं। रिसेप्शन पर खड़े गार्ड ने उसे पहचान लिया। “आप तो वही?” राहुल ने धीरे से जवाब दिया, “हां, मैं वहीं हूं। मगर आज माफी मांगने नहीं, काम मांगने आया हूं।” गार्ड ने मैनेजर को बुलाया जिसने ज़ैनब से इजाजत लेकर राहुल को अंदर भेजा।
ज़ैनब ने दफ्तर में राहुल को देखा। चेहरे पर ना गुस्सा था, ना अफसोस। बस खामोशी थी। “कहो राहुल, अब क्या लाए हो?” राहुल ने फाइल आगे बढ़ाते हुए कहा, “मैं एक इंजीनियर हूं। अगर चाहो तो गांव की शाखाओं में स्कूल और डिस्पेंसरी के प्रोजेक्ट्स में मजदूर की तरह काम करूंगा। ना तनख्वाह मांगूंगा, ना रुतबा। बस यूसुफ को साबित करना चाहता हूं कि उसका बाप अब बदल गया है।” ज़ैनब ने कुछ पल सोचा फिर धीरे से सर हिलाया। “अगर मेहनत सच्ची हो तो रास्ता हमेशा खुलता है।”
राहुल की आंखों में नमी थी। मगर आज वह आंसू शर्म के नहीं, सुकून के थे। कई दिन बीत चुके थे। राहुल अब नूर फाउंडेशन की गांव शाखा में एक मामूली कर्मचारी के तौर पर काम कर रहा था। जहां कभी उसने फक्र से वर्दी पहनी थी, अब वहीं खाकी कपड़ों में ईंटें ढोता था। मिट्टी में सना हुआ, पसीने से तर, मगर दिल में एक अजीब सी राहत लिए। वह सुबह जल्दी उठता, मजदूरों के साथ नाश्ता करता, जमीन समतल करता और दोपहर को पेड़ की छांव में पानी पीता। ना कोई उसे सलाम करता, ना कोई जानना चाहता कि वह कौन है। मगर अब उसे परवाह नहीं थी। अब वह खुद से भाग नहीं रहा था, बल्कि खुद को सजा देकर पाक कर रहा था।
उधर दिल्ली में नूर फाउंडेशन का मुख्य दफ्तर अब एक उम्मीद का मरकज बन चुका था। यतीम बच्चे, बेवाएं, बीमार लोग सबको वहां से राहत मिलती थी। ज़ैनब अब एक मजबूत और मुतमई सरबराह बन चुकी थी। ना मीडिया से बात, ना स्टेज पर भाषण, उसका फलसफा था, “खिदमत खामोशी से होती है, शोहरत से नहीं।” एक दिन ऑफिस के रिसेप्शन पर एक नर्स भागते हुए आई। “मैडम, यूसुफ को वैक्सीन लगवानी है। मगर वह रो रहा है। अगर आप बुलाएं तो शायद चुप हो जाए।” ज़ैनब मुस्कुराई। “चलो, मैं आती हूं।”
जब वह नर्सरी में पहुंची, यूसुफ दीवार की तरफ मुंह छुपाए बैठा था। छोटे से चेहरे पर आंसू थे। ज़ैनब ने धीरे से बेटे के पास बैठते हुए कहा, “बेटा, हिम्मत करो। मां साथ है ना?” यूसुफ ने सर उठाया। आंखों में सवाल थे। “अम्मी, क्या सब लोग बदल सकते हैं?” ज़ैनब चौंक गई। “यह सवाल क्यों?” यूसुफ ने मासूमियत से कहा, “आज स्कूल में एक अंकल आए थे। हमारे नए खेल मैदान का काम कर रहे हैं। हर रोज सबसे पहले आते हैं और सबसे देर से जाते हैं। जब भी मुझे देखते हैं, चुपचाप मुस्कुराते हैं। नानी कहती थी कि जो दिल से काम करे, वो बुरा नहीं होता।”
ज़ैनब की सांस अटक गई। “उन अंकल का नाम क्या है?” “मालूम नहीं। बस सब उन्हें राहुल अंकल कहते हैं।” ज़ैनब ने यूसुफ को सीने से लगा लिया। उसकी आंखों में एक अजीब सी नमी थी। वक्त ने जैसे खामोशी से एक मंजर बदल दिया था। अगले हफ्ते फाउंडेशन की एक टीम गांव शाखा के दौरे पर गई। ज़ैनब उसकी सरबराही कर रही थी। गांव पहुंचते ही बच्चे कतारों में खड़े थे। औरतों ने दुआएं दीं। स्थानीय स्टाफ खुशी से झूम
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