टूटा रिश्ता, बिखरी उम्मीदें: एक पिता, एक बेटी और एक मां की कहानी
राजस्थान के एक फैमिली कोर्ट में आज कुछ अलग माहौल था। आम तौर पर जहाँ बहस और गवाहों की आवाजें गूंजती थीं, आज वहाँ सन्नाटा था। सबकी निगाहें जज साहब पर टिक गई थीं, जो अपना फैसला सुनाने वाले थे। जज ने फाइल बंद की, चश्मा उतारा और गंभीर आवाज में कहा, “सौरव वर्मा हर महीने अपनी तलाकशुदा पत्नी अंजलि को गुजारा भत्ता देगा और साथ ही अपनी पाँच वर्षीय बेटी आरोही की पढ़ाई और जरूरी खर्चों की जिम्मेदारी भी निभाएगा।”
फैसले के साथ ही कोर्ट में कोई आवाज नहीं रही। लेकिन जिस बेंच पर सौरव बैठा था, वहाँ उसकी दुनिया टूट चुकी थी। सिर झुकाए, चेहरा हथेलियों में छुपाए, उसकी आँखों से आँसू बह रहे थे—बिना किसी शोर के। जैसे कोई रिश्ता अंदर ही अंदर मर गया हो। धीरे से उसने अपना कांपता कंधा माँ सुशीला देवी की ओर मोड़ा और उनके कंधे में चेहरा छुपाकर फफक कर रो पड़ा। सुशीला देवी ने कांपते हुए हाथों से बेटे के सिर पर हाथ फेरा, लेकिन उनके अपने आँसू भी अब रुकने का नाम नहीं ले रहे थे। वह जानती थीं, उनका बेटा सिर्फ एक केस नहीं हार रहा, बल्कि अपनी जिंदगी की सबसे प्यारी चीज—अपनी बेटी—अब किसी और की परछाई में जाते देख रहा है।
कोर्ट के दूसरे कोने में खड़ी थी अंजलि। उसके चेहरे पर कोई पछतावा नहीं था, ना ही कोई गम, बल्कि एक सख्त, थकी हुई लेकिन संतुष्ट मुस्कान थी। जैसे कोई लंबी लड़ाई जीत ली हो। उसने अपनी पाँच साल की बेटी आरोही का हाथ पकड़ा और कोर्टरूम से बाहर जाने के लिए मुड़ी। लेकिन तभी आरोही ने हाथ छुड़ाया और दौड़ पड़ी सीधी अपने पापा के पास। उसकी मासूम आवाज जैसे पूरे कोर्ट में गूंज गई, “पापा, आप क्यों रो रहे हो? मैंने तो कुछ नहीं किया। प्लीज मत रोइए ना पापा।” सौरव उसे अपने सीने से लगाकर जोर-जोर से रोने लगा। आरोही ने अपने नन्हे हाथों से सौरव के गालों से आँसू पोंछे और धीमे से कहा, “पापा मैं अब कभी शरारत नहीं करूंगी। होमवर्क टाइम पर करूंगी। बस घर चलो ना पापा।”
लेकिन तभी अंजलि आई और गुस्से में आरोही का हाथ खींचा, “आरोही चलो मेरे साथ।” आरोही मां की गोद में थी, लेकिन उसकी आँखें अब भी पीछे अपने पापा को देख रही थी। उसकी मासूम आँखों में बस एक सवाल तैर रहा था, “पापा, आप मेरे साथ क्यों नहीं आ रहे?” और जब उस गलियारे के मोड़ से आरोही ओझल हो गई, सौरव की गोद जैसे खाली हो गई थी। उसकी आँखें अब भी वहीं थीं, जहाँ आरोही की आखिरी झलक थी।
वही बैठा-बैठा सौरव धीरे-धीरे उस समय में लौट गया, जहाँ यह रिश्ता शुरू हुआ था। जहाँ सपने बुनना शुरू किया था, जहाँ पहली बार पापा बनने की उम्मीद जगी थी। एक वक्त था जब सौरव की आँखों में आज जैसी नमी नहीं थी, बल्कि एक चमक हुआ करती थी। राजस्थान के अलवर में एक छोटा सा किराए का फ्लैट, प्राइवेट कंपनी की साधारण सी नौकरी और माँ सुशीला देवी की दुआएँ—बस इतनी सी दुनिया थी उसकी। लेकिन उसका दिल बड़ा था। वो चाहता था कि अब इस घर में एक और रिश्ता आए, एक जीवन साथी हो। उसी उम्मीद में अंजलि उसके जीवन में आई। शादी अरेंज मैरिज थी, पर सौरव ने दिल से निभाने की ठानी।
अंजलि दिखने में बेहद सुंदर, आधुनिक सोच वाली, तेज, आत्मनिर्भर और आत्मविश्वासी थी। सौरव को लगा मैं बहुत खुशकिस्मत हूँ, इतनी पढ़ी-लिखी स्मार्ट लड़की मुझे मिली है। शादी के शुरुआती दिन थोड़े बनावटी थे, लेकिन सौरव खुश था। वो अंजलि के लिए छोटी-छोटी चीजें करता—चाय में शक्कर की सही मात्रा, ऑफिस से आते हुए उसकी पसंद की पेस्ट्री लाना। धीरे-धीरे अंजलि के चेहरे से वो मुस्कान कम होने लगी। अब वह हर बात में सौरव की सादगी पर तंज करने लगी। कभी कहती, “तुम्हें पार्टीज की समझ नहीं है,” कभी कहती, “तुम्हारे दोस्तों की बातें बोरिंग होती हैं।” सौरव सुनता रहता, कभी जवाब नहीं देता। शायद शादी में थोड़ा एडजस्ट करना पड़ता है, यही सोचकर वह सब सहता रहा।
वह जानता था कि अंजलि आज़ादी पसंद करती है। इसलिए उसने कभी टोकाटाकी नहीं की। लेकिन यह आज़ादी धीरे-धीरे दूरी में बदलती जा रही थी। अंजलि देर रात तक अपने कॉलेज फ्रेंड्स से कॉल पर बात करती, हर हफ्ते पार्टीज में जाती और कई बार सुबह घर लौटती। सौरव इंतजार करता, दरवाज़ा खोलता, खाना गर्म करता और फिर चुपचाप सोने की कोशिश करता। वह टूट रहा था लेकिन दिखा नहीं रहा था।
फिर एक दिन उसकी जिंदगी में एक नई रोशनी आई। डॉक्टर ने बेटी होने की खबर दी। सौरव की आँखें भर आईं। अब शायद सब बदल जाएगा। उसने माँ के कंधे पर सिर रखकर कहा, “अब सब अच्छा होगा।” शुरुआत में ऐसा लगा भी। अंजलि ने दो-तीन दिन तक आरोही को बाहों में भरकर तस्वीरें खिंचवाई, इंस्टा स्टोरी डाली। लेकिन फिर सब कुछ पहले जैसा हो गया। आरोही के रोने की आवाज से उसे सिर दर्द होता। वो कहती, “मैं मां बनी हूँ, आया नहीं।” और जिम्मेदारी आ गई सुशीला देवी पर। एक बूढ़ी मां जो अब खुद एक बार फिर से मां बन गई थी। सौरव दिन में ऑफिस और रात में घर का हर कोना संभाल रहा था।
अंजलि अब भी पार्टीज में थी, व्हाट्सएप ग्रुप्स में एक्टिव और दोस्तों के साथ आउटिंग में बिजी। आरोही धीरे-धीरे मां की गोद से नहीं, दादी की कहानियों और पापा की गोद से जुड़ने लगी। सौरव फिर भी उम्मीद में था, शायद वक्त के साथ सब ठीक हो जाएगा। लेकिन किसे पता था कि अब जो तूफान आने वाला है, वह सिर्फ भरोसा नहीं, सौरव का पूरा वजूद तोड़ देगा।
एक शाम सौरव ऑफिस से जल्दी घर लौटा। हाथ में आरोही के लिए गुलाबी गुब्बारा और अंजलि के लिए एक गुलाब। चाहता था आज की शाम थोड़ी सी अलग हो। लेकिन दरवाजा खोला तो सामने सुशीला देवी मिली, चेहरे पर फीकी मुस्कान। “अंजलि तीन दिन की ट्रिप पर जा रही है, अपने कॉलेज फ्रेंड्स के साथ।” यह पहली बार नहीं था। सौरव जानता था कि अंजलि को घूमना पसंद है। उसने कभी रोका नहीं, कभी शक नहीं किया। लेकिन इस बार दिल के किसी कोने में कुछ चुपचाप चुभ रहा था।
तीन दिन बीते, फिर चार, फिर पाँच। अंजलि ना लौटी, ना कॉल किया। फोन करने पर बस एक टका सा जवाब मिलता, “ट्रिप बढ़ गई है, व्यस्त हूँ।” फिर एक दिन सौरव के एक सहकर्मी ने उसे कुछ दिखाया—इंस्टाग्राम पर एक फोटो, लोकेशन टैग इंदौर। उस फोटो में अंजलि अकेली नहीं थी, उसके साथ था एक लड़का—सरोज। नीचे कैप्शन था, “अब जाकर जिंदगी में सच में खुश रहने का एहसास हो रहा है।” सौरव की उंगलियाँ कांप गईं। उसके दिल के अंदर जैसे किसी ने नश्तर चुभा दिया।
उस रात सौरव छत पर बैठा रहा। आँखों में आँसू नहीं थे, बस एक सवाल था—“मैंने क्या गलत किया था?” फिर भी जब अंजलि लौटी, उसने कुछ नहीं कहा। बस उसके सामने खड़ा होकर बोला, “जो हो गया सो हो गया, पर क्या हम एक बार सिर्फ आरोही के लिए फिर से कोशिश कर सकते हैं?” अंजलि हँस दी, एक तीखी बेईमानी हँसी। “तुम्हारे साथ कोशिश? जिस आदमी के साथ रहते हुए दम घुटता है, उसी के साथ दोबारा जिंदगी शुरू करूं? मैं सरोज से प्यार करती हूँ और अब तुम्हारे साथ नहीं रह सकती। मुझे तलाक चाहिए।”
सौरव की जुबान सूख गई, उसकी साँसें थम गईं। लेकिन उसने कुछ नहीं कहा, क्योंकि वह जानता था—लड़ाई लड़ने से पहले किसी के अंदर प्यार होना चाहिए, और यहाँ अब कुछ बचा ही नहीं था। माँ सुशीला देवी ने देखा कि उनका बेटा अब पहली बार सच में अंदर से टूट चुका है। जैसे हर माँ करती है, उन्होंने उसकी पीठ थपथपाई, लेकिन कुछ कह नहीं सकीं।
फिर एक दिन अंजलि ने तलाक की अर्जी डाल दी। सौरव ने कोर्ट में कोई लड़ाई नहीं की, क्योंकि वह नहीं चाहता था कि आरोही की मासूमियत इन कड़वाहटों की अदालत में लटक जाए। लेकिन जब फैसला आया कि आरोही की कस्टडी माँ को दी जाएगी और सौरव को सिर्फ महीने में एक बार मिलने की इजाजत होगी, तो सौरव की दुनिया जैसे खत्म हो गई। उसने वह भी मंजूर कर लिया। यहाँ तक कि वह घर भी अंजलि को दे दिया, जहाँ कभी आरोही की पहली हँसी गूंजी थी।
अब वह माँ सुशीला देवी को लेकर टीटी नगर के एक छोटे से किराए के घर में रहने लगा। सिर्फ इस उम्मीद में कि महीने का वह एक दिन आएगा जब वह अपनी बेटी से मिल सकेगा, और उस एक दिन में वह उसे सारा प्यार दे सकेगा, जो बाकी के 29 दिनों में अंदर ही अंदर घुटता रहता है।
तलाक के बाद अंजलि ने एक नई जिंदगी शुरू कर दी थी। अब वह नौकरी करती थी, लेकिन जिंदगी के नाम पर उसके पास सिर्फ आज़ादी का नाम था, जिम्मेदारी नहीं। आरोही अब उसके लिए बस एक रूटीन बन चुकी थी। सुबह जल्दी निकलती, आरोही को एक आया के भरोसे छोड़ देती और देर रात घर लौटती। कई बार शराब की महक के साथ अब अंजलि की जिंदगी में एक और नाम जुड़ चुका था—विशाल, बेरोजगार, गैर जिम्मेदार और शराब का आदि। लेकिन अंजलि को उसकी संगत में वही थ्रिल महसूस होता था जिसे वह सौरव के साथ मिस करती थी।
विशाल अब खुलेआम उसके घर आने लगा, रातें बिताने भी। आरोही यह सब देख रही थी, समझ नहीं पा रही थी कि यह अंकल कौन है, लेकिन उसे अच्छा नहीं लगता था। आया ने कई बार देखा—विशाल की निगाहें आरोही पर कुछ ज्यादा ही ठहर जाती थीं। वह कुछ कह नहीं पाई, लेकिन सतर्क रहने लगी।
फिर एक दिन जब अंजलि घर पर नहीं थी, विशाल ने आया को चाय लाने भेजा और खुद आरोही के पास जा बैठा। उसने आरोही को गोद में लिया और उसके मासूम शरीर को ऐसे छूने लगा जैसे वो कोई इंसान नहीं, बस एक खिलौना हो। आरोही डर गई, उसने खिसकने की कोशिश की। विशाल ने कान में फुसफुसाया, “अगर किसी को बताया तो तुझे भी मार डालूंगा।” और तेरी मम्मी को भी। आरोही चुप हो गई, उसके मन में एक डर बैठ गया जो अब हर दिन उसके साथ उठता और हर रात उसकी नींद तोड़ देता।
यह कोई एक दिन की बात नहीं थी। अब जब भी विशाल आता, आरोही सहम जाती। एक दिन तो उसने जलती सिगरेट से आरोही की जांघ पर दाग दिया। आरोही चीख पड़ी। आया दौड़ी आई। विशाल ने कहा, “हाथ से सिगरेट गिर गई, गलती हो गई।” लेकिन आया को यकीन हो चुका था—अब बहुत हो गया।
आया ने वो किया जिसने इस कहानी को नया मोड़ दिया। सौरव को उस महीने आरोही से मिलने का दिन मिला। वह आरोही के लिए आइसक्रीम, टेडी बेयर लाया। लेकिन जैसे ही आरोही को देखा, वह दौड़कर उसके गले नहीं लगी, आया से लिपट गई और कांपते हुए बोली, “पापा, मुझे डर लगता है।” सौरव कुछ समझ नहीं पाया। उसने हाथ बढ़ाया लेकिन आरोही पीछे हट गई। उसने बस एक वाक्य बार-बार दोहराया, “मुझे डर लगता है पापा। बहुत डर लगता है।”
सौरव का दिल थम गया। उसने आया को एक तरफ ले जाकर पूछा, “क्या हो रहा है मेरी बेटी के साथ?” आया ने कुछ देर चुप रहने के बाद धीरे से कहा, “बाबूजी, अब बहुत हो गया है। आपको सब जानना होगा।” उस रात सौरव के पास नींद नाम की चीज नहीं थी। आरोही की कांपती आवाज, उसका डरा हुआ चेहरा और आया की अधूरी बातों ने उसे भीतर तक हिला दिया था।
अब उसे सिर्फ यकीन नहीं था, उसे सबूत चाहिए था। उसी रात उसने फैसला लिया—अब चुप नहीं रहूंगा। अब यह लड़ाई सिर्फ कश्ती की नहीं, मेरी बेटी की जिंदगी की है। अगले दिन सौरव और आया ने मिलकर प्लान बनाया। आया ने अंजलि से कहा कि वह सब्जी लाने जा रही है, लेकिन उसका फोन जेब में था, रिकॉर्डिंग ऑन थी और वह घर से बाहर नहीं, दरवाजे के ठीक पीछे छुपी थी। जैसे ही विशाल को अकेले मौका मिला, वह फिर आरोही के पास आया और वही घटिया हरकत दोहराने लगा। लेकिन इस बार हर शब्द, हर हरकत रिकॉर्ड हो रही थी।
आया ने दरवाजा खोला, विशाल घबरा गया। आया ने आरोही को अपनी गोद में उठाया और कहा, “अब तू बच नहीं पाएगा।” वो रिकॉर्डिंग लेकर उसी शाम सौरव के पास पहुंची। सौरव फूट-फूट कर रो पड़ा, “माँ, मेरी गुड़िया यह सब कैसे सह गई?” लेकिन आँसू पोछते ही वह सीधे पुलिस स्टेशन पहुँचा और सबूतों के साथ रिपोर्ट दर्ज करवाई। विशाल को उसी रात गिरफ्तार कर लिया गया। कोर्ट में मामला गया और इस बार कोर्ट में सिर्फ कानून ही था, इंसाफ भी था। जज साहब ने कहा, “बच्ची आरोही की कस्टडी तत्काल प्रभाव से पिता सौरव को दी जाती है। माँ अंजलि को मानसिक काउंसलिंग और कोर्ट के मूल्यांकन के बाद ही बच्ची से मिलने की सशर्त इजाजत दी जाएगी।”
सौरव ने आरोही को गोद में उठाया, उसकी छोटी हथेली से उसकी आँखों के आँसू पोछे और कहा, “अब कोई तुझे डराएगा नहीं बेटा। अब तेरा पापा तेरे साथ है हमेशा।” आरोही ने धीमे से पूछा, “अब मैं वहाँ नहीं जाऊंगी ना पापा? अब वह अंकल नहीं आएंगे ना?” सौरव ने उसका माथा चूमा, “अब सिर्फ कहानियाँ आएंगी बेटा, डर नहीं।”
सौरव अब फिर से जीने लगा था। सुशीला देवी फिर से दादी बन गई थीं। आरोही की मुस्कान लौटने लगी थी। लेकिन माँ वाला कोना अब भी उसके दिल में खाली था। और उधर अंजलि, जो कभी सब कुछ छोड़कर चली गई थी, अब अकेली थी। जब उसे विशाल की सच्चाई पता चली, जब कोर्ट का फैसला आया, तो वह टूट गई। दिन-रात रोती रही और फिर एक दिन सौरव के दरवाजे पर पहुँची। सुशीला देवी ने दरवाजा खोला, सामने वह औरत थी जिसने इस घर को एक जमाने में घर नहीं माना। “सौरव, मैं आरोही से मिलना चाहती हूँ।”
सौरव ने दरवाजे पर खड़े-खड़े कहा, “तुमने अपनी बेटी का भरोसा तोड़ा है अंजलि। वह अब भी डरती है तुमसे। अगर तुम वाकई माँ हो, तो उसका डर पहले खत्म करो, फिर प्यार की बात करना।” अंजलि फूट-फूट कर रो पड़ी, “मैंने बहुत कुछ खो दिया है सौरव। लेकिन मैं अपनी बेटी को वापस पाना चाहती हूँ। किसी भी रूप में—चाहे उसकी माँ बनकर, उसकी दोस्त बनकर या सिर्फ एक इंसान बनकर।”
कुछ हफ्तों बाद कोर्ट की निगरानी में मुलाकात की अनुमति मिली। अंजलि आई। आरोही ने उसे देखा और सीधे सौरव की गोद में छुप गई। लेकिन अंजलि ने हार नहीं मानी। हर मुलाकात में वह चॉकलेट लाती, किताबें लाती और सबसे ज्यादा सच्चा प्यार लेकर आती। धीरे-धीरे आरोही ने उसकी तरफ देखना शुरू किया, फिर पास बैठना, फिर एक दिन पार्क में झूला झूलते हुए उसने पूछा, “मम्मी, वो गाना गाओ ना जो आप मुझे बचपन में सुनाती थी।” अंजलि की आँखें भर आईं। उसने वही गाना गुनगुनाया और पहली बार आरोही ने उसके हाथ को नहीं हटाया।
वो अब भी सौरव की गोद में सोती थी, लेकिन कभी-कभी अंजलि के साथ बातें भी करती थी। शायद घाव भरना शुरू हो चुका था, क्योंकि कुछ घाव ऐसे होते हैं जो मरहम से नहीं, बल्कि प्यार, धैर्य और सच्चे इरादों से ठीक होते हैं। आरोही अब धीरे-धीरे मुस्कुराने लगी थी। अब उसे रात में डर कर उठना नहीं पड़ता था, अब उसके तकिए पर आँसू नहीं, कहानियों की मीठी यादें होती थीं। और सौरव—वो अब सिर्फ एक बाप नहीं था, एक ढाल था, एक दुनिया था। और अंजलि—वह अब बस माँ बनने की कोशिश नहीं कर रही थी, बल्कि अपनी बेटी का भरोसा दोबारा जीतने के रास्ते पर थी।
एक दिन आरोही ने खुद सौरव और अंजलि का हाथ थामा, धीरे से मुस्कुराई और बोली, “अब डर नहीं लगता बाबा, अब तो मैं फिर से आपकी नन्ही परी बन गई हूँ।” उस दिन सौरव की आँखों में जो आँसू आए, वो दुख के नहीं थे, वो सुकून के थे। एक पिता की सबसे बड़ी जीत के आँसू।
अब अंजलि के साथ सौरव ज़िन्दगी तो बिता रहा था, लेकिन वह पहले जैसा प्यार अब नहीं रहा। वो बात नहीं रही जिसमें एक दूसरे की आँखें सब कुछ कह देती थी, जिसमें एक चुप्पी भी मोहब्बत लगती थी। अब दोनों एक साथ रहते थे, लेकिन सिर्फ इसीलिए क्योंकि उनकी बेटी आरोही को पूरा परिवार चाहिए था। सौरव ने नफरत नहीं की, बल्कि सब कुछ भुलाकर माफ कर दिया। लेकिन माफ करना यह नहीं होता कि दिल फिर से वैसा ही हो जाए जैसा पहले था। वो अब एक जिम्मेदार बाप था, जिसे पता था कि अगर बेटी को सुकून देना है तो उसे अपना दर्द दिल में छुपाकर जीना होगा। अंजलि भी अब समझ गई थी कि सौरव उसे वैसे कभी नहीं देखेगा जैसे पहले देखा करता था।
लेकिन वह अब अपनी बेटी के लिए एक अच्छी माँ बनने की कोशिश में लगी थी।
क्या हर टूटे रिश्ते को माफी और समझदारी से फिर से जोड़ा जा सकता है या कुछ दरारें हमेशा के लिए रह जाती हैं?
अपनी राय ज़रूर दीजिए।
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