जानकी देवी का आत्मसम्मान
जानकी देवी की जिंदगी अब अकेलेपन और उपेक्षा की आदत डाल रही थी। पति राघव जी का देहांत हुए कई साल गुजर चुके थे। कभी वही घर उनकी हंसी से गूंजता था, लेकिन अब सब बदल गया था। जानकी देवी अपने बेटे अजय और बहू सोनिया के साथ रहती थी, पर यह साथ सिर्फ नाम का था। घर में चमचमाती दीवारें थीं, महंगे पर्दे थे, लेकिन अपनत्व की एक बूंद भी नहीं थी।
हर सुबह सूरज की किरणें उनके कमरे में आतीं, मगर जानकी देवी के दिल में उजाला नहीं होता। उनकी दिनचर्या बस मजबूरी बन चुकी थी। कोई उनका हाल पूछने वाला नहीं था। एक दोपहर वे खाने की मेज पर बैठी थीं। बहू से बोली, “बहू, मुझे बहुत खांसी आ रही है, मैं चावल नहीं खा सकती। मुझे रोटी दे दो।” बेटे अजय ने तुरंत टोक दिया, “मां, सोनिया को भी खांसी है। आप चुपचाप चावल खा लो।” बेटे की बेरुखी ने जानकी देवी का दिल तोड़ दिया। वे चुपचाप खाना छोड़कर उठ गईं।
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ऐसे ही दिन गुजरते रहे। उनकी एकमात्र सहेली सुशीला ही थी, जो वसंत विहार पार्क में उनसे मिलने आती थी। सुशीला ने एक दिन कहा, “जानकी, कभी-कभी बोलना भी जरूरी है। वरना लोग हमारी चुप्पी का फायदा उठाते हैं।” यह बात जानकी देवी के दिल में उतर गई। उसी दिन बहू ने फिर ताने मारे, लेकिन इस बार जानकी देवी ने जवाब दिया, “मैं घर का सारा काम करती हूं, ताने मारने की जरूरत नहीं है।” सोनिया को यह बात पसंद नहीं आई।
शाम को अजय ऑफिस से लौटा। सोनिया ने अजय से शिकायत की कि मां ने उसकी बेइज्जती की है। अजय गुस्से में मां के कमरे में गया और मां पर हाथ उठा दिया। “आगे से सोनिया के खिलाफ कुछ भी कहने से पहले इस थप्पड़ को याद रखना!” जानकी देवी की आत्मा तक कांप गई। उन्होंने टूटे स्वर में कहा, “मां पर हाथ उठाने वाला बेटा कभी सुखी नहीं रहता। एक दिन तुम्हें पछताना पड़ेगा।”
कुछ दिन तक जानकी देवी और भी ज्यादा चुप रहने लगीं। पार्क में सुशीला से मिलकर उन्होंने सारी बात बताई। सुशीला ने कहा, “अगर तुमने अपने सम्मान के लिए आवाज नहीं उठाई, तो मुझसे मिलने मत आना।” जानकी देवी ने ठान लिया कि अब वह चुप नहीं रहेंगी। उन्होंने अपने पुराने वकील विनोद जी से सलाह ली। विनोद जी ने कहा, “कानून आपके साथ है, लेकिन असली ताकत आपकी हिम्मत है।”
अगले ही दिन जानकी देवी ने घर छोड़ने का फैसला किया। उन्होंने रामनगर में एक छोटा सा घर किराए पर ले लिया। अजय और सोनिया को साफ कह दिया, “अब मैं अपनी जिंदगी अपने हिसाब से जिऊंगी।” जानकी देवी का नया जीवन शुरू हुआ। बाजार जाना, बिल भरना, सब्जियां खरीदना – हर काम उन्होंने खुद किया। धीरे-धीरे आत्मविश्वास लौट आया।
पास के स्कूल में बुजुर्ग महिलाओं को बच्चों को पढ़ाने का काम मिलता था। सुशीला ने सलाह दी तो जानकी देवी ने भी कोशिश की। स्कूल में पहली बार बच्चों को कहानियां सुनाईं और बच्चों ने उन्हें दादी कहकर पुकारा। उनका खोया हुआ सम्मान और प्यार लौटने लगा। मोहल्ले में सब उन्हें जानकी दी कहने लगे।
समय के साथ अजय और सोनिया की जिंदगी में परेशानियां बढ़ीं। एक दिन अजय मां के पास आया, माफी मांगी और घर लौटने का आग्रह किया। जानकी देवी ने कहा, “माफ करना और भरोसा करना अलग बातें हैं। अब मैं वही जिंदगी जीऊंगी जहां मुझे सम्मान और सुकून मिलता है।”
एक दिन स्कूल में बच्चों के साथ कार्यक्रम में उन्हें प्रेरणादायक महिला का सम्मान मिला। तालियों के बीच उनकी आंखों में संतोष के आंसू थे। उन्होंने सीखा कि आत्मसम्मान से बड़ा कोई रिश्ता नहीं।
यह कहानी हमें सिखाती है कि अपमान सहना सबसे बड़ी गलती है। रिश्तों में प्यार और सम्मान सबसे जरूरी है।
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