एक मां, एक अचार और बदलती किस्मत

उत्तर प्रदेश के प्रयागराज शहर की तंग गलियों में एक पुराना, जर्जर मकान खड़ा था। उसी मकान में अकेली जिंदगी गुजार रही थी 62 वर्षीय सरला देवी। चेहरे की झुर्रियों में बीते वक्त के दुख छुपे थे, लेकिन आंखों में अब भी ममता की चमक थी। पति को गुजरे कई साल हो गए थे। बेटा और बहू शहर के एक अच्छे फ्लैट में रहते थे, मगर मां को अपने साथ रखने की जगह उन्होंने अकेले छोड़ दिया था। फिर भी सरला देवी का दिल आज भी अपने पोते-पोतियों के लिए धड़कता था।

हर दोपहर जैसे ही स्कूल की छुट्टी का समय होता, वह दरवाजे पर आकर खड़ी हो जाती। हाथ में हमेशा दो चॉकलेट होतीं, नजरें बार-बार उसी रास्ते की ओर जातीं जिधर से बच्चों का ऑटो गुजरता था। एक दिन ऑटो ड्राइवर राजेश महतो ने देखा कि सरला देवी बच्चों को देखने के लिए लाठी टकते-टकते स्कूल तक चली आई थीं। पसीने से भीगी, थकी हुई, लेकिन आंखों में सिर्फ अपने पोते-पोतियों की झलक पाने की चाह। राजेश का दिल पसीज गया। उसने बड़े अदब से कहा, “अम्मा, आप रोज इतनी दूर मत आया कीजिए। मुझे अपना घर बता दीजिए, मैं बच्चों को यहीं रोक दूंगा।”

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उस दिन से राजेश रोज अपना ऑटो दो किलोमीटर अतिरिक्त घुमा कर लाता, सिर्फ इसलिए ताकि सरला देवी को बच्चों से मिलने का सुख मिल सके। जब भी बच्चे अपनी दादी को देखकर दौड़कर गले लगते, सरला देवी का चेहरा खिल उठता। उनकी आंखों में जो सुकून झलकता, वही देखकर राजेश की आंखें भी कई बार नम हो जातीं। असल में राजेश ने अपने बचपन में मां-बाप का प्यार कभी महसूस ही नहीं किया था। माता-पिता का देहांत बहुत पहले हो गया था। अनाथ बचपन, फिर संघर्ष से भरी जवानी—यही उसका जीवन था।

फिर एक दिन बच्चों की गर्मियों की छुट्टियां पड़ गईं। सरला देवी को इसका पता नहीं था। वो रोज की तरह दरवाजे पर आकर खड़ी हो जातीं, चॉकलेट हाथ में लिए, मगर बच्चों वाला ऑटो आता ही नहीं। राजेश ने उन्हें समझाया और उसी दिन से दोनों में एक अनोखा रिश्ता जुड़ गया। राजेश अक्सर सरला देवी के घर बैठने लगा। सरला देवी अपने हाथों से बना अचार उसे खिलातीं। राजेश ने एक निवाला लिया तो उसकी आंखें चमक उठीं, “अम्मा, ऐसा अचार तो मैंने कभी नहीं खाया!”

सरला देवी ने बताया कि वह अपने हाथों से अचार बनाती हैं और आस-पड़ोस की औरतें उसे खरीद लेती हैं। इन्हीं पैसों से दवाइयां और घर का खर्च चलता है। राजेश ने सोचा, कितनी मजबूती से यह औरत अकेले सब झेल रही है—बाहर से टूटे फूटे मकान में लेकिन भीतर से पत्थर जैसी हिम्मत।

धीरे-धीरे राजेश का परिवार भी सरला देवी से जुड़ता चला गया। एक रविवार को राजेश अपनी पत्नी रीना और बच्चों को लेकर सरला देवी के घर पहुंचा। रीना ने घर की सफाई करवाई, टूटी चारपाई पर नई चादर बिछाई, दीवारों पर सजावटी कैलेंडर टांग दिए। सरला देवी का चेहरा गर्व और कृतज्ञता से दमक उठा।

एक दिन राजेश के घर कुछ मेहमान आए। खाने के साथ रीना ने सरला देवी का अचार भी परोसा। मेहमानों ने स्वाद चखा और तारीफों की बौछार कर दी। उनमें से एक बड़े कारोबारी ने कहा, “अगर यह अचार बड़े पैमाने पर बने, तो बाजार में छा जाएगा।” राजेश को पहली बार लगा कि सरला देवी का हुनर सिर्फ घर तक नहीं, पूरी दुनिया तक जाना चाहिए।

कुछ ही महीनों में एक छोटी सी फैक्ट्री की नींव रखी गई। कारोबारी मित्र ने निवेश किया, राजेश ने अपनी बचत लगाई और सरला देवी ने अपना अचार बनाने का नुस्खा साझा कर दिया। फैक्ट्री में हर बैच में वह खुद जाकर स्वाद देखतीं, मजदूर उन्हें अम्मा कहकर बुलाते। धीरे-धीरे सरला अम्मा का अचार प्रयागराज और आसपास के जिलों में मशहूर हो गया। हर डिब्बे पर उनकी मुस्कुराती तस्वीर छपती।

एक दिन बेटे-बहू ने फैक्ट्री में आकर मां से माफी मांगी, लेकिन सरला अम्मा ने कहा, “जब मैं तुम्हारे घर में थी तब तुमने मुझे बोझ समझा। अब मैं अपने नए परिवार के साथ खुश हूं।” राजेश, रीना और फैक्ट्री के मजदूर ही अब उनका परिवार बन चुके थे।

यह कहानी हमें यही सिखाती है कि मां-बाप को कभी बोझ मत समझो। उनके आशीर्वाद से ही जिंदगी संवरती है। रिश्तों की कीमत समझो और अपनों के साथ रहो।