पिता का दर्द: वृद्धाश्रम की कहानी

गोपीनाथ जी और उनकी पत्नी कावेरी देवी ने अपनी पूरी जिंदगी अपने बेटों राजेश और मोहित के लिए समर्पित कर दी थी। दोनों ने बच्चों को अच्छे स्कूल में पढ़ाया, हर सुख-सुविधा दी, और हमेशा अपने बच्चों की खुशियों को अपनी प्राथमिकता माना। लेकिन वक्त का पहिया घूमा, और एक दिन कावेरी देवी बीमारी के बाद इस दुनिया से चली गईं। घर में मातम छा गया, लेकिन उनके जाने के साथ ही घर का संतुलन भी बिगड़ गया।

अब बहुएं रूपा और मनीषा की शिकायतें शुरू हो गईं। रूपा कहती, “बाबूजी दिन भर बैठे रहते हैं, कोई काम नहीं करते।” मनीषा ताना मारती, “घर का खर्चा कौन उठाएगा?” धीरे-धीरे बेटों के मन में भी यह बात बैठ गई कि बूढ़े पिता अब बोझ हैं। गोपीनाथ जी के लिए यह सब सुनना किसी सजा से कम नहीं था। पत्नी का सहारा तो छिन ही गया था, अब बेटे भी पराए लगने लगे थे।

बहुओं के दबाव और बेटों की सहमति से एक दिन फैसला हुआ कि गोपीनाथ जी को वृद्धाश्रम भेज दिया जाए। गाड़ी जब घर से निकली, तो गोपीनाथ जी खामोश थे। उन रास्तों को देख रहे थे, जिन पर कभी अपने बेटों को कंधे पर बैठाकर मेले दिखाने ले जाते थे। आज उन्हीं रास्तों पर उनके आंसू गिर रहे थे।

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वृद्धाश्रम पहुंचते ही बेटों ने कहा, “बाबूजी, यहां आपकी अच्छी देखभाल होगी।” गोपीनाथ जी की आंखों में आंसू थे, उन्होंने बस इतना पूछा, “देखभाल तो हो जाएगी, लेकिन जब दिल टूटेगा, तब मेरे आंसू कौन पोंछेगा?” बेटे चुप रहे और उन्हें छोड़कर चले गए।

वृद्धाश्रम का माहौल शुरू में गोपीनाथ जी को अजनबी लगा। चारों ओर अनजाने चेहरे, सबकी आंखों में वही खालीपन, वही दर्द। धीरे-धीरे दिनचर्या शुरू हुई – सुबह योग, दोपहर में साधारण खाना, शाम को भजन-कीर्तन। लेकिन गोपीनाथ जी का मन वहां नहीं लगा। वे हर पल अपनी पत्नी को याद करते, अपने घर और पोतों को याद करते।

एक दिन वृद्धाश्रम में सामाजिक संस्था के लोग आए। उन्होंने गोपीनाथ जी से बातचीत की और जब उन्हें पता चला कि उनके पास जमीन-जायदाद है, तो हैरान हो गए। उस रात गोपीनाथ जी ने बहुत देर तक सोचा। उन्होंने निर्णय लिया कि अपनी सारी संपत्ति वृद्धाश्रम को दान कर देंगे। अगले दिन वकील बुलाया, कागज तैयार हुए और उन्होंने दस्तखत कर दिए। अब उनका मन हल्का था, उन्होंने सब कुछ भगवान को सौंप दिया।

यह खबर पूरे गांव में फैल गई। बेटों के पैरों तले जमीन खिसक गई। राजेश और मोहित तुरंत वृद्धाश्रम पहुंचे। उनके चेहरे पर चिंता थी, दिल में डर और पछतावा। उन्होंने पिता से कहा, “बाबूजी, हमें माफ कर दीजिए। हम आपको घर ले जाएंगे, अब आपकी सेवा करेंगे।” गोपीनाथ जी ने शांत स्वर में कहा, “सेवा दिल से होती है, मजबूरी या दिखावे से नहीं। जब मुझे सच में तुम्हारी जरूरत थी, तब तुमने मुझे अकेला छोड़ दिया।”

राजेश और मोहित दोनों रो पड़े। बहुएं भी माफी मांगने आईं। लेकिन गोपीनाथ जी ने कहा, “मुझे खाने-पीने की नहीं, अपनेपन की कमी थी। तुमने मुझे सामान की तरह बांट दिया। अब मैं वहीं रहूंगा, जहां मुझे सम्मान मिला है।”

उनकी आवाज वृद्धाश्रम के हॉल में गूंज गई। सभी बुजुर्ग सुन रहे थे, किसी की आंखें भर आईं। राजेश और मोहित हाथ जोड़कर खड़े रहे, लेकिन अब बहुत देर हो चुकी थी। गोपीनाथ जी बाहर बगीचे की ओर चले गए। उनके कदम लड़खड़ा रहे थे, लेकिन आत्मा मजबूत थी। उन्होंने अपने दर्द को सबक में बदल दिया था।

यह कहानी हमें सिखाती है कि मां-बाप कोई बोझ नहीं, बल्कि जीवन की जड़ें हैं। अगर हम उन्हें ठुकरा देंगे, तो वक्त हमें भी वही आईना दिखाएगा।