📜 धड़कनों का धीमा पड़ना: धर्मेंद्र की वसीयत और टूटे दिलों का मेल

 

प्रकरण 1: जुहू के घर का सन्नाटा

 

धर्मेंद्र जी के निधन के 72 घंटे बाद भी, मुंबई में उनके घर की हवा में एक अजीब सा सन्नाटा छाया हुआ था। यह वह सन्नाटा था जिसने पूरे परिवार की धड़कनों को पकड़कर धीमा कर दिया था। हेमा मालिनी अभी भी गहरे शोक में डूबी थीं, उनकी आँखें सूजी हुई थीं, लेकिन दिल में एक अटल दर्द था।

आज वह दिन था जब घर में एक महत्वपूर्ण घटना घटने वाली थी। वह दस्तावेज़ आने वाला था जिसे धर्मेंद्र ने अपनी आख़िरी दिनों में लिखा था—उनकी वसीयत

दरवाजा खुला, और एक वकील घर के अंदर दाख़िल हुए। उनके हाथ में एक पुरानी, कपड़े की फ़ाइल थी, जो किसी इतिहास की तरह भारी दिखाई देती थी। घर में सबकी नज़रें उसी फ़ाइल पर टिक गईं।

आज पहली बार, पूरा परिवार—हेमा मालिनी, प्रकाश कौर, सनी देओल, बॉबी देओल, और ईशा देओल—एक ही कमरे में मौजूद था। वर्षों की दूरियाँ और अनकहे गिले-शिकवे इस कमरे में हवा में घुले हुए थे।

प्रकरण 2: वकील का पढ़ना और हेमा का आँसू

वकील ने धीरे से फ़ाइल खोली और बोलना शुरू किया। उनकी आवाज़ शांत थी, लेकिन हर शब्द का वज़न पहाड़ जैसा था।

“यह धरम जी की आख़िरी वसीयत है। इसमें उन्होंने वो सब लिखा है जो वह अपने जाने से पहले करना चाहते थे।”

फिर वकील ने मुख्य पंक्तियाँ पढ़ीं:

“मेरी सारी चल-अचल संपत्ति दोनों परिवारों में बाँट दी जाएगी—प्रकाश कौर के परिवार को भी, और हेमा मालिनी के परिवार को भी।”

यह सुनते ही हेमा मालिनी की आँखें पूरी तरह भर गईं। यह पैसे का नहीं, बल्कि सम्मान का बँटवारा था। प्रकाश कौर ने थोड़ा झुककर अपनी साँस रोक ली, चेहरे पर स्वीकार्यता का भाव था।

वकील ने अगली लाइन पढ़ी, जिसने सब को अंदर तक छू लिया:

“हेमा, तुमने मेरे बाद आधी दुनिया संभालनी है। तुम्हें वह हिस्सा मिले जो तुम्हें सुरक्षित रखे। यह मेरा आख़िरी आशीर्वाद है।”

हेमा की आँखों से आँसू निकल गए। धर्मेंद्र ने अपने प्रेम को आख़िरी आशीर्वाद दिया था। हेमा, जो जानती थीं कि वह कभी धर्मेंद्र को पूरी तरह से अपना नहीं बना सकती थीं, आज उनके इस सम्मान से टूट गईं।

प्रकरण 3: सनी पर सबसे बड़ी ज़िम्मेदारी

 

वसीयत में सनी देओल के लिए एक बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी छोड़ी गई थी। वकील ने पढ़ना जारी रखा:

“और मेरा सबसे बड़ा भरोसा मेरे बेटे सनी पर है।”

सनी की नज़रें सबकी तरफ़ टिकी थीं। कमरा एक पल को पूरी तरह से ठहर सा जाता है।

वकील ने धर्मेंद्र जी के अंतिम शब्द पढ़े, जो एक बेटे के लिए पिता का आदेश था:

“सनी, तुम मेरी दोनों दुनियाओं को एक बनाए रखना। हेमा का ख़्याल रखना। वह सिर्फ़ मेरी पत्नी नहीं, मेरी आख़िरी अमानत है।”

यह वह पल था जब सनी के भीतर बरसों से जमा हुई नफ़रत, पिता के भरोसे के सामने पिघल गई। वह सनी, जो कभी हेमा के क़रीब न आ पाए, आज पिता का यह भरोसा उनके दिल को बदल देता है।

हेमा मालिनी ने पहली बार पूरे जीवन में सनी की तरफ़ देखा। सनी ने हल्का सा सिर झुकाकर स्वीकार किया। उनकी आँखों में भावनाओं का सैलाब उमड़ आया—यह एक बेटे की अपने पिता के सपनों को पूरा करने की मौन प्रतिज्ञा थी।

प्रकरण 4: परिवार का मेल मिलाप और टूटी दीवारें

 

धर्मेंद्र की वसीयत ने दोनों परिवारों को पहली बार एक ही मेज़ पर बैठा दिया था। यह सिर्फ़ दस्तावेज़ नहीं था, बल्कि एकता का संदेश था।

ईशा जाती हैं, और प्रकाश कौर का हाथ पकड़ती हैं। हेमा इसके बाद धीरे से सनी को देखती हैं और हल्की सी मुस्कान देती हैं—वो मुस्कान जिसे सनी पहली बार दिल से स्वीकार करते हैं।

सनी देओल ने हमेशा हेमा मालिनी को ‘घर तोड़ने वाली औरत’ के रूप में देखा था, क्योंकि उन्हें लगा था कि उनकी माँ के दुःख के पीछे कहीं न कहीं हेमा मालिनी का हाथ है। लेकिन पिता की वसीयत ने उन्हें यह सच दिखाया कि हेमा ने कभी रोक-टोक नहीं की, उन्होंने हमेशा त्याग का रास्ता चुना।

हेमा जानती थीं कि धर्मेंद्र का दिल आधा प्रकाश कौर के लिए धड़कता था, और आधा उनके लिए। धर्मेंद्र के लिए उनका परिवार सबसे पहले आता था। इसीलिए हेमा ने उन्हें अपनी ज़िंदगी अपने हिसाब से जीने की पूरी इजाज़त दी।

प्रकरण 5: महानता की विरासत

 

धर्मेंद्र ने न सिर्फ़ प्रकाश कौर का ख़्याल रखा, बल्कि हेमा मालिनी का भी पूरी तरह से ख़्याल रखा। अगर कोई दूसरा व्यक्ति होता, तो पूरा परिवार बिखर जाता। लेकिन धर्मेंद्र जी ने बड़ी ही ख़ूबसूरती से दोनों परिवारों को संजोया। उन्होंने अपने छहों बच्चों (प्रकाश कौर से चार और हेमा मालिनी से दो) को एक जैसा प्यार दिया, एक समान देखा।

यह चीज़ उन्हें महान बनाती है। वह बॉलीवुड के दिग्गज अभिनेता ही नहीं थे, वह अच्छे इंसान भी थे।

धर्मेंद्र की आख़िरी वसीयत ने दोनों परिवारों को जोड़ने का काम किया था। एक तरफ़ था बराबरी का बँटवारा, दूसरी तरफ़ था सबसे बड़ा आशीर्वाद और जो ज़िम्मेदारी सनी के कंधों पर रखी गई, वह सिर्फ़ परिवार का नहीं, बल्कि पिता के सपनों को पूरा करने का सबसे बड़ा वादा था।

धर्मेंद्र की आखिरी वसीयत में प्यार और न्याय का जो मर्म छिपा था, उसने साबित कर दिया कि रिश्ते किसी कागज़ के मोहताज़ नहीं होते। उनकी विरासत—रिश्तों को सँजोने की कला—हमेशा ज़िंदा रहेगी।