💎 वफ़ादारी की कीमत: शेख, उनकी बीवी और भारतीय नौकर की रहस्यमय रात

 

प्रकरण 1: सोने का पिंजरा और एक साधारण लड़का

 

दुबई की गगनचुंबी इमारतों के साए में, शेख अब्दुल्लाह का आलीशान महल खड़ा था—रेगिस्तान के बीचों-बीच एक अभेद्य क़िला। शेख़ तेल के कारोबार से अरबों कमाते थे और उनकी 20 साल छोटी, ख़ूबसूरत बीवी अलीना, उस महल की सुनहरी मालकिन थीं। अलीना बाहर की दुनिया से आई एक स्वतंत्र फ़ैशन डिज़ाइनर थीं, लेकिन शेख़ के प्यार ने उन्हें महल की चारदीवारी में क़ैद कर दिया था। वह जानती थीं कि वह रानी नहीं, बल्कि एक सुनहरी पिंजरे की चिड़िया हैं।

उसी महल में, विशाल नाम का एक भारतीय युवक सेवा करता था। उत्तर प्रदेश के एक छोटे से गाँव से आया विशाल, अपनी ईमानदारी और शांत मुस्कान के लिए जाना जाता था। उसकी जड़ें खेतों की मिट्टी में थीं और सपने दुबई की चमक में थे।

अलीना की आँखें अक्सर विशाल पर टिकी रहतीं। विशाल की सादगी, उसकी हिंदी में की गई मीठी बातें, अलीना को अपनी पुरानी, आज़ाद ज़िंदगी की याद दिलाती थीं। शेख़ मीटिंग्स में व्यस्त रहते, तो अलीना विशाल को बुलाती, कॉफ़ी पीती, और अपने दिल का बोझ हल्का करतीं।

एक दिन, विशाल के सीधे जवाब पर कि “मैडम, आप तो रानी हैं, शेख़ साहब आपको इतना प्यार करते हैं,” अलीना की आँखों में गहरी उदासी तैर गई। उन्होंने फुसफुसाते हुए कहा:

“प्यार? यह तो क़ैद है विशाल। तुम समझते हो ना?”

उन्होंने विशाल के हाथ पर अपना कोमल हाथ रखा और कहा, “मल्लिका नहीं विशाल, मैं यहाँ एक शोपीस हूँ। और तुम सच्चे हो। मैंने तुम्हारी आँखों में एक आज़ादी देखी, जो मेरे पास कभी नहीं थी।”

प्रकरण 2: बीमारी का बहाना और आधी रात का डर

एक शाम, माहौल में अप्रत्याशित बदलाव आया। अपनी दिनचर्या पूरी कर रहे विशाल को शेख़ की पत्नी अलीना ने बुलाया। उनकी तबियत ठीक नहीं लग रही थी।

“सुनो, आज तुम मेरी सेवा करो। मुझे अपनी सेहत में कुछ दिक़्क़त महसूस हो रही है।”

विशाल हक्का-बक्का रह गया। उसकी नज़रें बगल में खड़े शेख़ पर टिकीं। शेख़ ने थके होने के कारण अपने कमरे में जाते हुए कहा: “मैडम जो बोल रही हैं, उसका ध्यान रखना।”

यह पल मर्यादाओं की पतली डोर पर झूल रहा था।

अगली सुबह, अलीना ने विशाल को फिर बुलाया। आवाज़ में घबराहट थी। “मुझे डॉक्टर के पास जाना है, भीतर कुछ गड़बड़ लग रही है।” विशाल बिना सवाल किए उसे शहर के सबसे बड़े अस्पताल ले गया।

डॉक्टर ने अलीना की जाँच की और कहा: “तनाव बहुत बढ़ गया है, शरीर पर असर कर रहा है। कुछ दिन आराम की ज़रूरत है।”

महल लौटकर, अलीना ने विशाल का धन्यवाद किया, पर उसकी आँखों में चिंता थी। विशाल को महसूस हो गया था कि अलीना की यह बीमारी सिर्फ़ शरीर की नहीं, बल्कि उस क़ैद की थी जिसमें वह रोज़ घुटती जा रही थी।

शाम ढल चुकी थी। विशाल ने अलीना को डॉक्टर की बताई पहली दवाई थमाई। अलीना ने कहा कि यह दवाई उन्हें सूट नहीं कर रही, दिल भारी लग रहा है। अचानक, उन्होंने दवाई की शीशी उठाई और विशाल की ओर देखा:

“सुनो विशाल, यह दवा तुम भी लो, ताकि मुझे लगे यह ठीक है।”

विशाल हक्का-बक्का रह गया, पर अलीना के आग्रह को वह टाल नहीं पाया। उसने आधी गोली खा ली।

प्रकरण 3: ईमानदारी और करुणा का संग्राम

 

दवा खाने के बाद, अलीना ने धीमी आवाज़ में कहा: “विशाल, आज मेरे पास ही रहो। रात बहुत भारी लग रही है, डर लगता है अकेले।”

विशाल कुछ पल चुप रहा। उसकी नज़र में झिझक थी, पर अलीना की आँखों में मासूमियत और असहायता थी, जिसने उसके दिल को छू लिया। उसने सिर झुकाकर कहा: “ठीक है मैडम, आप चिंता मत कीजिए।”

विशाल पास रखी कुर्सी पर बैठ गया। उसके भीतर ईमानदारी और करुणा का संग्राम शुरू हुआ। उसे अपने माता-पिता की याद आई—उनकी सीख कि सेवा में भी मर्यादा होनी चाहिए, वरना भक्ति अधूरी रह जाती है।

अलीना ने धीरे से कहा: “काश, शेख़ समझ पाते कि मैं बीमार नहीं, बस अकेली हूँ।”

विशाल ने मन ही मन बाबा साईं का नाम लिया: “साईं, मुझे राह दिखा दो। मैं ग़लत राह पर न चला जाऊँ। सेवा में भावना रखो, वासना नहीं, दया रखो, इच्छा नहीं।”

उसने उठकर खिड़की बंद की और कहा: “आप आराम कीजिए। मैं यहीं पास बैठा हूँ।”

अलीना ने अपनी आँखें बंद कर लीं। उसके होठों पर हल्की मुस्कान थी, जैसे बरसों बाद उसे शांति मिली हो। विशाल ने सारी रात वहीं पहरा दिया, उसकी साँसों को देखता रहा। कोई शब्द नहीं, कोई लालसा नहीं। सिर्फ़ दो इंसान थे—एक टूटी आत्मा और एक सजग सेवक।

प्रकरण 4: शेख़ का शक और आज़माइश

 

अगली सुबह, अलीना गहरी नींद में थी। चेहरे पर सुकून था। विशाल को एहसास हुआ कि इंसान की असली ताक़त शरीर में नहीं, आत्मा में होती है।

जब शेख़ अब्दुल्लाह विदेश से लौटे और अपनी पत्नी को इतने प्रसन्न भाव में देखा, तो उनके चेहरे पर हैरानी और राहत दोनों झलक पड़ी। अलीना ने कहा, “आज मुझे अपनेपन का एहसास हुआ है।”

शेख़ ने तुरंत विशाल की ओर देखा। उन्होंने विशाल की वफ़ादारी का इनाम देना चाहा, पर विशाल ने कहा: “साहब, अगर आप सच में कुछ देना चाहते हैं, तो मुझे बस आपकी दुआ चाहिए। बाक़ी सब साईं पर छोड़ दीजिए।”

शेख़ मुस्कुरा दिए, मगर उसी मुस्कान के पीछे कहीं एक शक की लकीर भी थी: किसी इंसान का इतना नेक होना भी क्या संभव है?

यह विचार उनके मन में उतर गया। उन्होंने अलीना से दूरी बनाने के लिए विशाल को अपने साथ विदेश भेजने की योजना बनाई। वह देखना चाहते थे कि अगर विशाल से दूरी बढ़ेगी, तो अलीना की स्थिति फिर वैसी ही हो जाएगी या नहीं।

प्रकरण 5: अंतिम सच और वफ़ादारी की जीत

 

हुआ भी वैसा ही। जैसे ही विशाल कुछ दिन के लिए गया, अलीना फिर वही पुरानी उदासी में डूब गई। उसने खाना छोड़ दिया।

शेख़ ने यह सब देखा और उनका शक सच्चाई में बदल गया। उन्होंने विशाल को अचानक वापस बुलाया और कहा: “मेरी बीवी फिर बीमार पड़ गई है।”

विशाल तुरंत भागा। अलीना को देखा तो उसकी आँखों में आँसू थे। उसने धीमे स्वर में कहा: “तुम चले गए, तो लगता है फिर से वही सन्नाटा लौट आया।”

शेख़ दरवाज़े के पीछे यह सब सुन रहे थे। उनके चेहरे पर ग़ुस्सा और अपराध बोध था। उन्होंने दरवाज़ा खोला, विशाल की ओर देखा और बोले: “तो यही सच था! तुमने मेरे घर की दीवारों में, मेरे रिश्ते में, अपने क़दम रख दिए!”

विशाल का गला भर आया था। “साहब, मैं आपके सामने शपथ लेता हूँ। मैंने कभी कोई सीमा नहीं तोड़ी। मैंने बस वही किया जो इंसानियत और भगवान ने मुझे सिखाया।”

तभी अलीना ने अपनी मेज़ की दराज़ से डॉक्टर की पुरानी रिपोर्ट निकाली और शेख़ के हाथ में थमा दी। उसमें लिखा था कि उसका मानसिक तनाव जानलेवा स्तर तक पहुँच चुका था और उसे किसी भावनात्मक सहारे की ज़रूरत थी।

शेख़ की आँखें नम हो गईं। वह धीरे से विशाल के पास आए और बोले: “मैंने तुम्हें आजमाया, पर तुम सच में वही निकले जो तुम दिखते हो—वफ़ादार और सच्चे।”

उन्होंने अपने गले की सोने की चेन उतारकर विशाल के हाथ में रख दी—“यह पैसे से बड़ी चीज़ है, मेरे भरोसे की निशानी।”

उस दिन से महल का माहौल बदल गया। जहाँ पहले चुप्पी और दूरी थी, वहाँ अब सुकून और संवाद था। विशाल की सेवा ने अलीना को ख़ुद से मिलवाया, और शेख़ को अपनी ज़िम्मेदारी का एहसास कराया।

यह कहानी सिखाती है कि इंसान की नीयत ही उसके कर्मों की पवित्रता तय करती है। अगर भावनाएँ सच्ची हों, तो सबसे कठिन परिस्थिति में भी इंसान अपनी मर्यादा और भक्ति दोनों निभा सकता है। सेवा तभी पूजा बनती है जब उसमें कोई स्वार्थ न हो।