12 साल बाद जब DSP ने अपने पति को सड़क पर भीख मांगते देखा — आगे जो हुआ किसी ने सोचा भी नहीं था

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बिसौली की सुहानी: एक अफसर, एक इंसान, एक नई शुरुआत

बिसौली गाँव की गलियों में अक्सर धूप की किरणें देर तक ठहर जाती थीं। इन्हीं गलियों में पली-बढ़ी थी सुहानी—एक आम सी लड़की, मगर सपनों से भरी हुई। उसके पिता भोलाराम खेतों में मजदूरी करते थे, माँ कमला देवी दूसरों के घरों में काम करके घर चलाती थीं। गरीबी थी, लेकिन घर में मोहब्बत, आदब और संस्कारों की रोशनी कभी कम नहीं हुई।

सुहानी बचपन से ही बहुत समझदार थी। उसकी आँखों में सपनों का पूरा आसमान बसता था। मगर घर वालों को लगता था कि लड़की को ज़्यादा पढ़ाने का कोई फायदा नहीं। जब वह सिर्फ 15 साल की थी, उसका रिश्ता दूर के रिश्तेदार के बेटे जगदीश से तय कर दिया गया। शादी हो गई, मगर सुहानी उम्र कम होने की वजह से मायके में ही रही। उसे कहा गया कि 18 साल की होते ही ससुराल भेज देंगे। सुहानी के सपने जैसे बिखर गए।

वह स्कूल जाती, अच्छे नंबर लाती। दिल में एक डर था कि 18 साल के बाद उसकी दुनिया बदल जाएगी। उसका ख्वाब था कि एक दिन वह बड़ी अफसर बने, पुलिस की वर्दी पहने, गाड़ी पर डीएसपी लिखा हो और लोग उसे सलाम करें।

समय बीतता गया। शादी तो हो गई, मगर जगदीश से कोई गहरा रिश्ता नहीं बन पाया। 17 साल की उम्र में उसने हिम्मत करके जगदीश से पूछा, “क्या मैं आगे पढ़ सकती हूँ? पढ़ाई मेरी जान है।” जगदीश ने बस यूँ ही हामी भर दी। सुहानी को लगा शायद अब उसकी ज़िंदगी में नई सुबह आएगी। लेकिन जैसे ही वह 18 साल की हुई, उसे ससुराल भेज दिया गया।

ससुराल बड़ा था, जिम्मेदारियाँ और भी बड़ी। सुबह आँख खुलते ही काम का ढेर सामने होता। सास सख्त मिजाज की थी, ससुर पुराने ख्यालात वाले। जगदीश सरकारी स्कूल में चपरासी था। शादी से पहले उसने वादा किया था कि वह सुहानी को पढ़ने देगा, मगर ससुराल का माहौल आते ही वह बात धुंधली पड़ गई।

कुछ महीने गुज़रे। सुहानी ने हिम्मत जुटाई और फिर कहा, “मैं पढ़ाई जारी रखना चाहती हूँ।” जगदीश ने चौंक कर देखा, “अब कैसी पढ़ाई? घर का काम देखो। हमारे घर में कोई लड़की इतना नहीं पढ़ती। तुम्हें भी नहीं पढ़ना है।” उसकी यह बात सुहानी के दिल पर चोट बनकर बैठ गई। लेकिन उसने उम्मीद नहीं छोड़ी। मगर वक्त के साथ जगदीश का स्वभाव और भी कड़क होता गया। छोटी-छोटी बातों पर नाराज़ हो जाना, ऊँची आवाज़ में बोलना आम हो गया।

एक रात सुहानी ने फिर कहा, “जगदीश, मैं बस थोड़ी सी पढ़ाई करना चाहती हूँ।” जगदीश ने गुस्से में कहा, “तुम्हें कितनी बार समझाना पड़ेगा? आगे पढ़ाई की कोई ज़रूरत नहीं।” धीरे-धीरे यही गुस्सा रोज़ का मामला बन गया। बहस झगड़े में बदल जाती। सुहानी की हालत देखकर सास-ससुर भी बीच में बोलते, मगर उनकी सोच भी वही पुरानी थी। अब सुहानी के चेहरे की चमक कम होने लगी थी। मगर दिल के किसी कोने में उसका सपना अभी भी जिंदा था।

एक दिन बड़ी बहस के बाद जगदीश ने पहली बार उस पर हाथ उठा दिया। सुहानी के दिल में जैसे हज़ारों शीशे टूट गए। वही शख्स जिसने कभी वादा किया था, आज उसके रास्ते की सबसे बड़ी दीवार बन गया था।

दिन बीतते गए, हालात और बदतर होते गए। जगदीश रोज़ खेत से लौटकर किसी भी छोटी बात पर चिल्ला उठता। गुस्सा अब उसका स्वभाव बन गया था। सुहानी हर बार चुप रहती क्योंकि उसे महसूस होने लगा था कि हर झगड़ा उसके सपनों से एक कदम और दूर कर देता है। रातों को उसका दिल चुपचाप रोता। दिन में वह मुस्कुराने की कोशिश करती मगर अंदर ही अंदर घुटती जा रही थी।

कई बार उसने सोचा अगर वह इस गाँव से बाहर जाकर पढ़ सके तो शायद ज़िंदगी बदल सकती है। उस रात भी जगदीश का गुस्सा हद से बढ़ गया था। अपमान की आग में तड़पती हुई सुहानी अपने कमरे में अकेले बैठी थी। खिड़की से आती हल्की चांदनी कमरे में फैल रही थी। सब सो चुके थे। लेकिन उसकी आँखों से नींद बहुत दूर थी। उस पल एक चीज़ पहले से ज़्यादा मजबूत हो चुकी थी—उसका इरादा।

सुहानी ने मन ही मन फैसला कर लिया। अगर वह यहीं रही तो उसकी ज़िंदगी इसी तकलीफ में खत्म हो जाएगी। ना सपने बचेंगे, ना इज्जत। उसे यहाँ से जाना ही होगा। उसने कांपते हाथों से एक छोटा कागज और पेन उठाया। दिल धड़क रहा था, मगर उसने लिखा—”जगदीश, जब मैं सिर्फ 15 साल की थी तब हमारी शादी हुई थी। मैंने कभी तुम्हें अपना दुश्मन नहीं समझा। मुझे उम्मीद थी कि तुम मेरा साथ दोगे। लेकिन तुमने मेरी हिम्मत तोड़ दी। मैं तुम्हें छोड़कर जा रही हूँ। क्योंकि मेरे सपने अब भी जिंदा हैं। मैं एक दिन अफसर बनकर वापस आऊँगी।”

नोट लिखकर उसने तकिए के पास रख दिया। फिर धीरे-धीरे कमरे से बाहर निकली। सास, ससुर और जगदीश तीनों गहरी नींद में थे। रात की हवा में डर भी था और आज़ादी की खुशबू भी। सुहानी ने अपनी कुछ जरूरी चीजें एक छोटे थैले में रखीं और घर के बाहर कदम रख दिया। गाँव की गलियाँ अंधेरे में डूबी थीं। वह तेज़ कदमों से चलने लगी। डर था लेकिन उसके सपने उससे भी बड़े थे।

स्टेशन गाँव से 5 किलोमीटर दूर था। कोई सवारी नहीं, बस उसके पैर और उसका इरादा। रास्ते में कई बार लगा कोई देख ना ले, मगर वह रुकी नहीं। उसके दिल में बस एक ही आवाज़ गूंज रही थी—मुझे अफसर बनना है। करीब 1 घंटे बाद वह स्टेशन पहुंची। पैसे बहुत कम थे, फिर भी उसने दिल्ली का टिकट लिया।

सुबह होने से पहले ट्रेन आई। धड़कते दिल के साथ वह उसमें चढ़ गई। दिल्ली पहुँचने में कई घंटे लगे। वह इस बड़े शहर में बिल्कुल अकेली थी। मगर हिम्मत उसके कदमों के साथ चल रही थी। पेट में भूख थी, बदन में दर्द था। शहर पहुँचते ही वह रहने की जगह तलाशने लगी। किराया इतना ज्यादा था कि उसके पास उम्मीद से ज्यादा कुछ नहीं था।

सुबह चार घरों में काम, दोपहर में पुरानी किताबों को खोलकर पढ़ाई, शाम को फिर काम और रात को कम नींद, ज़्यादा मेहनत। कई बार थकान से शरीर टूटने लगता। लेकिन उसकी आँखों में एक ही सपना चमकता था—अफसर बनना। उसने यूपीएससी की तैयारी शुरू की। कोचिंग के पैसे नहीं थे, तो पुरानी किताबें खरीदीं। लाइब्रेरी में बैठकर दिन भर पढ़ाई करती। कई बार भूख सताती, पानी पीकर खुद को संभाल लेती।

पहली बार परीक्षा दी। हॉल में बैठे लड़के-लड़कियाँ आत्मविश्वास से भरे थे। एक पल को उसके दिल में आया—क्या मैं इन सबके सामने टिक पाऊँगी? मगर अगले ही पल उसने खुद से कहा—जिसने इतना सफर अकेले तय किया है, वह यह पेपर भी दे सकती है। उसने पूरे दिल से परीक्षा दी। लेकिन रिजल्ट में उसका नाम नहीं था। उस रात वह बहुत रोई। लगा सब खत्म हो गया है।

तभी उसकी पड़ोसन पूजा आई, जो खुद चार साल से तैयारी कर रही थी। उसने कहा, “सुहानी हार मत मानो। पहली कोशिश में चयन होना बहुत मुश्किल होता है। तुम्हारी मेहनत कहीं खो नहीं रही। बस एक बार और कोशिश करो।” पूजा की बात उसके दिल में एक चिंगारी की तरह उतर गई। अगले ही दिन वह फिर लाइब्रेरी पहुँची। फिर वही मेहनत का सफर। इस बार पहले से ज़्यादा जुनून के साथ।

दूसरी बार परीक्षा का समय आया। इस बार सुहानी ने अपनी पूरी जान लगा दी। एग्जाम हुआ और इंतजार शुरू हुआ। रिजल्ट वाले दिन उसकी साँसें तेज़ हो गईं। कंप्यूटर स्क्रीन पर उसका नाम था। पहले तो यकीन ही नहीं हुआ। पूजा ने स्क्रीन देखी और खुशी से उछल पड़ी—”सुहानी तुम पास हो गई!” इस बार सुहानी की आँखों से जो आँसू निकले वह दर्द के नहीं, कामयाबी के थे।

कुछ दिनों बाद फाइनल रैंक आई और सुहानी को डीएसपी का पद मिला। सरकारी गाड़ी, मकान, वर्दी सब उसके नाम था। पहली बार अपनी पुलिस की वर्दी पहनी, आईने के सामने खड़ी होकर देर तक खुद को देखती रही। वर्दी में उसका चेहरा एक अलग ही रोशनी से चमक रहा था। उसकी आँखों में वह गर्व था जो सिर्फ उन लोगों को मिलता है जो अंधेरों से लड़कर रोशनी तक पहुंचते हैं।

अब गाड़ी थी, वर्दी थी, सम्मान था और समाज में पहचान भी। लोग दूर से सलाम करते। लेकिन उसके दिल में एक सवाल हमेशा सन्नाटा बनकर बैठा रहता—जगदीश कहाँ है? जब वह ससुराल गई थी, घर खाली मिला था। पड़ोसियों ने बताया कि जगदीश और उसका परिवार अचानक गाँव छोड़कर चले गए। कहाँ गए? क्यों गए? किसी को पता नहीं।

इसी बीच सरकार की तरफ से एक अहम आदेश आया। मथुरा में होने वाले बड़े धार्मिक कार्यक्रम की सुरक्षा संभालने के लिए उसे भेजा जा रहा था। मथुरा की भीड़, मंदिरों का शोर और भक्तों की लहर के बीच डीएसपी सुहानी अपने काम को समझने के लिए खुद मैदान में उतरी थी। वह हर मोड़, हर चौराहे, हर मंदिर के बाहर की स्थिति खुद अपनी आँखों से देख रही थी।

इसी भीड़ में उसकी नजर एक आदमी पर पड़ी। फटे पुराने कपड़े, सड़क किनारे भीख मांग रहा था। पहले तो सुहानी ने ध्यान नहीं दिया, लेकिन जैसे ही वह उसके पास से गुजरी, वह आदमी कांपते हुए बोला, “माता जी, कुछ दान दे दीजिए।” उसकी आवाज़ टूटी हुई थी। लेकिन सुहानी के कानों में यह आवाज़ एक अजीब सी चुभन बनकर उतर गई। उसने झुककर आदमी के चेहरे को गौर से देखा। गंदगी, धूल और लंबी दाढ़ी के पीछे वही कमजोर टूटी हुई आँखें—वह कोई और नहीं, उसका पति जगदीश था।

दुनिया जैसे एक पल को थम गई। सुहानी पूरी तरह स्तब्ध खड़ी रह गई। जगदीश की नजर भी डीएसपी की वर्दी वाली सुहानी पर पड़ी। पहले वह समझ ही नहीं पाया, फिर उसकी आँखें चौड़ी हो गईं। “सुहानी… यह सच है?” उसकी आवाज़ टूट रही थी। आँखों में शर्म, डर, पछतावा सब कुछ एक साथ घुला हुआ था।

सुहानी अंदर से बिखर गई, मगर उसने खुद को संभाल लिया। उसकी टीम को लगा कि यह कोई पागल आदमी है। वे उसे हटाने लगे। सुहानी ने तुरंत कहा, “रुको, इन्हें मत छुओ। यह मेरे पति हैं।” पुलिसकर्मी दंग रह गए। इतनी बड़ी अफसर के पति को इस हालत में देखकर वे कुछ बोल ही नहीं पाए।

सुहानी उसके पास गई और धीमी आवाज़ में पूछा, “यह क्या हाल बना लिया है?” जगदीश की आँखों से आँसू बहने लगे। “मेरी गलतियों ने, मेरे गुस्से ने, मेरे अहंकार ने सब कुछ खत्म कर दिया। मैं तुम्हें ढूंढता रहा, पर कभी पा नहीं सका। मैंने सब खो दिया।”

सुहानी ने गहरी साँस ली। वह उसके पास नीचे बैठ गई ताकि लोग उसे डर या शर्म की नजर से ना देखें। “घर पर क्या हुआ था? तुम अचानक कहां गायब हो गए?” जगदीश ने कहा, “तुम्हारे जाने के कुछ महीनों बाद एक बड़ा हादसा हो गया। मेरे मां-बाप दोनों मर गए। मैं बिल्कुल अकेला पड़ गया। नशे की लत लग गई। घर बिक गया। जमीन चली गई। आखिरी कमाई भी शराब में डूबा दी। आख़िर में मेरे पास ना घर था, ना पैसा, ना कोई अपना—बस अकेलापन और बर्बादी थी।”

सुहानी की आँखें भर आई। उसने कभी सोचा भी नहीं था कि वह आदमी जिसने कभी उसे दबाया था, आज खुद ऐसी ज़िंदगी जी रहा होगा। सुहानी ने नरम आवाज़ में कहा, “जगदीश, हाँ, तुमने गलतियाँ कीं। लेकिन इंसान गलतियाँ करता है। अगर तुम सच में बदलना चाहते हो, तो ज़िंदगी तुम्हें एक और मौका जरूर देगी।”

जगदीश ने कांपती आवाज़ में पूछा, “क्या तुम मुझे इस हालत से निकालने में मदद करोगी? मुझे पता है मैं तुम्हारे लायक नहीं हूँ, लेकिन मैं फिर से जीना चाहता हूँ। तुम्हें देखकर हिम्मत मिल रही है।”

सुहानी ने उसके कंधे पर हाथ रखा। “मैं तुम्हें अपने घर वापस नहीं बुला रही। ना ही सब कुछ तुरंत भूल सकती हूँ। लेकिन मैं तुम्हें उठने में जरूर मदद करूंगी। बदलने का फैसला तुम्हें लेना है। रास्ता मैं दिखाऊंगी।”

जगदीश फिर रो पड़ा। “मैं बदल जाऊंगा सुहानी। बस एक बार सहारा दे दो। मैं खुद को साबित कर दूंगा।”

सुहानी ने अपनी टीम को आदेश दिए। “इन्हें साफ-सफाई कराओ, खाना खिलाओ और डॉक्टर को दिखाओ।” कुछ घंटों में उसका चेहरा धुल गया, बाल ठीक कर दिए गए, कपड़े बदल दिए गए। वह अब कम से कम एक इंसान की तरह दिखने लगा।

सुहानी उसे पास के हॉस्पिटल ले गई, जहाँ लोग नशे की गिरफ्त से बाहर निकलकर अपनी ज़िंदगी दोबारा शुरू करते थे। डॉक्टर ने कहा, “मैडम, हम इनका पूरा इलाज करेंगे। समय लगेगा लेकिन यहां इन्हें अच्छा माहौल मिलेगा।”

जगदीश डरते हुए बोला, “तुम मुझे छोड़कर चली तो नहीं जाओगी?”

सुहानी मुस्कुराई। “नहीं, मैं तुम्हें छोड़कर नहीं जाऊंगी। लेकिन मैं तुम्हें उस ज़िंदगी में भी वापस नहीं ले जाऊंगी जहाँ से मैं भागकर आई थी। तुम्हें पहले खुद को सुधारना होगा। जब तुम अपनी ज़िंदगी संभाल लोगे, तब हम दुनिया को बताएंगे कि गलती करने वाला इंसान भी अगर सच्चे दिल से पछता ले तो ज़िंदगी उसे दूसरा मौका देती है।”

जगदीश पूरी तरह ठीक हो गया। लत छूट गई। चेहरा फिर से इंसानियत की रोशनी से भर गया। और यहीं यह कहानी खत्म होती है। लेकिन सुहानी की ताकत, जगदीश का पछतावा और ज़िंदगी का दिया हुआ दूसरा मौका लोगों के दिलों में हमेशा जिंदा रहेगा।

कहानी का संदेश:
गलतियाँ इंसान से होती हैं, लेकिन सच्चा पछतावा और बदलाव की चाहत इंसान को फिर से जीने का हौसला देती है। सुहानी की तरह हर लड़की को अपने सपनों के लिए लड़ना चाहिए और जगदीश की तरह हर इंसान को अपनी गलतियों को स्वीकार कर आगे बढ़ना चाहिए।