जिसे भारतीय सेना मामूली लड़की समझ रही थी, वो दरअसल पाकिस्तान की लड़की निकली। फिर जो हुआ…

कश्मीर की सरहद पर इंसानियत की जीत – रुसाना की कहानी
कश्मीर की ऊँची पहाड़ियों में ठंडी हवा, बहती नदियाँ, और डर का साया फैला हुआ था। वहीं, पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर के एक छोटे से गाँव भरावा में रहती थी 15 साल की मासूम लड़की रुसाना। उसके अब्बू, हबीब उल्लाह, एक साधारण किसान थे। अम्मी नूरजहाँ शॉल पर कढ़ाई करके परिवार चलाती थीं। सात साल का भाई अली उसकी दुनिया का राजकुमार था। गरीबी थी, लेकिन प्यार इतना गहरा कि हर कमी को भर देता था।
रुसाना स्कूल नहीं जाती थी। गाँव में लड़कियों का स्कूल तो सपना ही था। लेकिन वह घर के कामों में माहिर थी और हर सुबह अपनी बकरियों को लेकर पहाड़ों की ढलानों पर जाती, जहाँ घास हरी-हरी लहराती थी। उन बकरियों में सबसे प्यारी थी सफेद बकरी लूनी – शरारती, तेज, और हमेशा झुंड से अलग होकर कहीं भाग जाती। रुसाना को घंटों ढूंढना पड़ता।
उसके अब्बू ने हमेशा कहा था, “बेटी, कभी उस काली चोटी से आगे मत जाना। वहाँ सरहद है, फौजियों का राज है, खतरा है हर कदम पर।” रुसाना डरती थी, लेकिन उसकी मासूमियत उसे बेफिक्र रखती। उसे सरहद के पार वाले हिंदुस्तानी फौजियों के बारे में डरावनी कहानियाँ सुनाई जाती थीं, लेकिन उसने कभी गहराई से नहीं सोचा।
एक दिन की शुरुआत
सितंबर का आखिरी दिन था। हवा में ठंडक घुलने लगी थी। रुसाना अपनी बकरियों को लेकर काली चोटी के पास हरे मैदान में पहुंची। लूनी की घंटी की खनक सुन रही थी, तभी अचानक लूनी झुंड से अलग होकर काली चोटी की ओर भाग गई। रुसाना ने चिल्लाया, “लूनी, रुक जा!” लेकिन लूनी नहीं रुकी। रुसाना ने लाठी फेंकी और दौड़ पड़ी। भागते-भागते वह काली चोटी पार कर गई – अब्बू की हिदायतों की लकीर लांघ गई।
अचानक धुंध ने चारों ओर से घेर लिया। सफेद चादर ओढ़ ली पहाड़ों ने। कुछ ही पलों में दुनिया गायब हो गई। रुसाना ठिठक गई। डर ने उसके शरीर को जकड़ लिया। वह चिल्लाई, “लूनी! कहाँ हो?” आवाज धुंध में डूब गई। बाकी बकरियाँ भी कहीं नहीं दिखीं। वह अकेली पड़ गई। अंधेरे में उल्टी दिशा में चल पड़ी। घंटों पैदल चली, पैरों में छाले पड़ गए, भूख-प्यास से बेहाल हो गई। सूरज डूब गया, अंधेरा घिर आया। एक विशाल पेड़ के नीचे बैठकर फूट-फूटकर रोने लगी। अब्बू-अम्मी-अली की याद आई। डर के मारे वह वहीं सो गई।
सरहद के इस पार – भारतीय सेना की सुबह
अगली सुबह, भारतीय सेना की लायंस पिक पोस्ट पर तैनात जाट रेजीमेंट के बहादुर जवान जाग चुके थे। पोस्ट के कमांडर थे मेजर अर्जुन रावत – सख्त चेहरा, लेकिन रहम दिली से भरी आंखें। उनके लिए ड्यूटी ही धर्म था, लेकिन इंसानियत उससे भी ऊपर।
मेजर अर्जुन अपने दो साथियों – हवलदार हरी शर्मा और सिपाही रोहन के साथ गश्त पर निकले। यह इलाका घुसपैठ का अड्डा था। मुश्किल रास्तों पर कदम-कदम फूंक-फूंक कर चलते हुए, हवलदार हरी ने दूरबीन लगाई और देखा – एक पुराने पेड़ के नीचे कोई पड़ा हुआ है। मेजर अर्जुन ने देखा – एक छोटी सी लड़की, कश्मीरी लग रही, फटे कपड़े, ठंड से कांपती हुई सो रही है।
तीनों जवान सतर्क हो गए। बंदूकें तान ली। लेकिन मेजर अर्जुन ने इशारा किया, “चुपचाप, सावधानी से आगे बढ़ो।” वे तीनों छायाओं की तरह पेड़ के पास पहुँचे। रुसाना की नींद खुली। सामने तीन फौजी, वर्दी में तिरंगा चमकता, हाथों में बंदूकें। एक पल के लिए दुनिया थम गई। डर के मारे चीख निकली, “अब्बू, अम्मी, मुझे घर भेज दो! मैंने कुछ बुरा नहीं किया, बस भटक गई हूँ।”
मेजर अर्जुन ने उसकी आँखों में खौफ देखा। उन्होंने तुरंत बंदूक नीचे की, जवानों को इशारा किया और पिता जैसी आवाज में बोले, “डरो मत बेटी, हम तुम्हें कुछ नहीं करेंगे। बताओ, तुम कौन हो? यहाँ कैसे आ गई?”
रुसाना ने टूटे-फूटे लहजे में सब बता दिया – कैसे लूनी के पीछे दौड़ पड़ी, धुंध में रास्ता भटक गई, भूख-प्यास से बेहाल हो गई। मेजर अर्जुन का दिल पिघल गया। समझ गए, यह कोई जासूस नहीं, मासूम बच्ची है।
इंसानियत की मिठास
मेजर अर्जुन ने बैग से पानी की बोतल निकाली, कांपते हाथों से थमाई। सिपाही रोहन ने जेब से चॉकलेट निकाली – मीठी गोली, जो रुसाना ने पहली बार देखी थी। झिझकते हुए मुँह में डाली और स्वाद के साथ घुल गई इंसानियत की मिठास, जो उसके डर को पिघला रही थी।
मेजर अर्जुन ने वायरलेस पर पोस्ट को कॉल किया, पूरी बात बताई और रुसाना को कंधे पर उठाकर लायंस पिक पोस्ट लौट आए। बाकी जवान उसे देखकर दंग रह गए – दुश्मन देश की बच्ची, लेकिन दिलों में कोई नफरत नहीं, बस ममता का सैलाब। रसोईया लंगर सिंहा ने गर्म आलू के पराठे और चाय बनाई। रुसाना ने घंटों की भूख मिटाई, लगा जैसे स्वर्ग का स्वाद चख लिया हो। जवानों ने मोटी जैकेट, कंबल ओढ़ाया। कोई गाँव की बातें पूछता, कोई अली के बारे में।
रुसाना हैरान थी – यह वही हिंदुस्तानी फौजी नहीं जिनकी कहानियाँ डराती थीं, ये तो फरिश्ते थे, भाई जैसे। वह भूल गई सरहद को, लगा जैसे अपना घर है।
कठिन फैसला – कानून या इंसानियत?
अब मेजर अर्जुन के सामने था कठिन मोड़ – कानून कहता था, ऊपर वालों को सौंप दो, फिर पूछताछ, महीनों का इंतजार, सालों की बेड़ियाँ। लेकिन मेजर अर्जुन का जमीर चीख रहा था। उन्होंने रुसाना की आँखों में घर लौटने की तड़प देखी, उसके मां-बाप का दर्द महसूस किया, जो बेटी को मरी हुई समझ रो रहे होंगे। उन्होंने फैसला लिया – चुपचाप उसी रास्ते से वापस भेज देंगे। इंसानियत का नियम, देश के कानून से बड़ा।
मेजर अर्जुन ने कर्नल मेहता को हॉटलाइन पर कॉल किया, पूरी सच्चाई बताई, अपना इरादा जाहिर किया। कर्नल मेहता बोले, “यह जोखिम है, लेकिन मुझे तुम्हारे दिल पर भरोसा है। ऊपर बात करता हूँ।”
फिर मेजर अर्जुन ने पाकिस्तानी रेंजर्स के कैप्टन अकरम से संपर्क किया। घंटों की मशक्कत के बाद लाइन जुड़ी। मेजर अर्जुन ने सच्चाई से कहा, “कैप्टन, यह कोई चाल नहीं, बस एक बच्ची है जो भटक गई। इंसानियत के लिए लौटा दो उसके मां-बाप को।” कैप्टन अकरम को पहले शक हुआ, लेकिन आवाज की ईमानदारी ने पिघला दिया। तय हुआ – अगली सुबह 10 बजे शांति ब्रिज पर नो-मैन लैंड में बच्ची सौंपी जाएगी।
विदाई – सरहद पर मोहब्बत की धुन
रात भर रुसाना जवानों के साथ बैठी बातें करती रही, चॉकलेट्स खाती रही, दिल में उदासी घुली रही कि इन फरिश्तों को छोड़ना पड़ेगा। सुबह हुई, भारतीय जीप सफेद झंडे के साथ रुसाना को लेकर शांति ब्रिज की ओर बढ़ी। मेजर अर्जुन खुद ड्राइव कर रहे थे। रुसाना को ढेर सारी चॉकलेट्स दीं, अली के लिए खिलौने दिए। रुसाना रो पड़ी, “सर, आप सब मेरे भाई हो गए। मत भूलना मुझे।”
वहाँ पाकिस्तानी टुकड़ी खड़ी थी कैप्टन अकरम के साथ। बाजू में बूढ़ा जोड़ा – हबीब उल्लाह और नूरजहाँ – आँखें सूजी हुई, दिल टूटा हुआ। रुसाना ने मां-बाप को देखा, दौड़ पड़ी, “अम्मी, अब्बू!” तीनों लिपट गए, रोने का सैलाब उमड़ पड़ा। जैसे खोई हुई जिंदगी लौट आई हो। हबीब उल्लाह और नूरजहाँ मेजर अर्जुन के पैरों पर गिर पड़े, “आप फरिश्ते हो भाई साहब। हम तो बेटी को कफन ओढ़ा चुके थे, आपने जिंदगी लौटा दी।”
मेजर अर्जुन ने उन्हें गले लगाया, बोले, “यह हमारा फर्ज था। बेटी तो बेटी होती है, हिंदुस्तान की हो या पाकिस्तान की। सीमा तो दिलों में नहीं खींची जाती।” कैप्टन अकरम चुपचाप देख रहे थे, आगे बढ़े, मेजर अर्जुन की आँखों में सम्मान पाया और सख्त सलामी दी – वो सलामी जो फौजी की नहीं, इंसान की थी। इंसानियत को सलाम।
मेजर अर्जुन ने मुस्कुराकर जवाब दिया, और उस पल सरहद पर बंदूकों की बजाय मोहब्बत की धुन बजी।
कहानी की सीख
यह कहानी खत्म नहीं होती, यह तो बस शुरुआत है उस सफर की जहाँ नफरत की लकीरें धुंधली हो जाती हैं और इंसानियत चमकने लगती है। भारतीय सेना के इन बहादुरों ने साबित कर दिया कि वे सिर्फ जमीन के रक्षक नहीं, दिलों के सिपाही हैं। उन्होंने नफरत के पुल को तोड़कर मोहब्बत का सेतु बनाया और हमें सिखाया कि असली सरहद तो दिलों में होती है जो कभी नहीं टूटनी चाहिए।
दुनिया का सबसे बड़ा धर्म इंसानियत है, जो किसी वर्दी, किसी झंडे या किसी दीवार की गुलाम नहीं।
अगर आप रुसाना की जगह होते तो सरहद पार करने पर सबसे ज्यादा किस चीज का डर लगता? क्या यह कहानी ने आपके दिल में कोई पुरानी नफरत को पिघला दिया?
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जिंदगी छोटी है, मोहब्बत फैलाओ, नफरत मत। धन्यवाद।
(समाप्त)
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