करोड़पति ने देखा बेघर लड़की उसकी बेटी को पढ़ा रही है – आगे जो हुआ सबको चौंका गया
दिल्ली की भीड़-भाड़ वाली गलियों में, जहाँ अमीरी और ग़रीबी एक साथ साँस लेती हैं, वहीं पली-बढ़ी एक बारह साल की बच्ची शालिनी। पिता का साया सिर से उठ चुका था और माँ मानसिक रूप से अस्वस्थ थी। बचपन से ही शालिनी का घर कोई पक्का मकान नहीं, बल्कि चाँदनी चौक की टूटी-फूटी फ़ुटपाथ थी। वहीं उसने भूख, तिरस्कार और बेबसी के बीच अपने दिन काटे। लेकिन इस सारी अंधेरी दुनिया में उसके दिल के एक कोने में एक उजाला था—पढ़ाई का सपना।
संघर्ष से भरी ज़िंदगी
शालिनी की माँ आरती कभी हँसती, कभी चिल्लाती, तो कभी खामोश होकर दीवार को देखती रहती। माँ का ख्याल रखना, उसे खाना खिलाना, रात की ठंड से ढकना—ये सब एक नन्हीं बच्ची का रोज़ का काम था। राहगीर उसे दुत्कारते, दुकानदार उसे भगा देते। एक बार किसी ने कहा था, “अरे गंदी लड़की, सामने से हट!” और शालिनी ने सिर झुकाकर आँसू रोक लिए।
इन्हीं मुश्किलों के बीच एक उम्मीद की किरण बनी लक्ष्मी आंटी—पास की चाय की दुकान चलाने वाली। पहले उन्होंने शालिनी को खाना दिया, फिर छोटे-मोटे काम में मदद करने दी। धीरे-धीरे उन्हें समझ आया कि यह बच्ची सिर्फ़ रोटी ही नहीं चाहती, उसे पढ़ाई की भी भूख है। उन्होंने उसे कॉपी-पेन दिए और सरकारी स्कूल में दाखिला भी करवा दिया।
पहली बार, फटी-पुरानी यूनिफ़ॉर्म पहनकर शालिनी जब स्कूल पहुँची, तो उसे लगा मानो वह किसी राजकुमारी से कम नहीं।
उम्मीद और निराशा
स्कूल में वह तेज़ी से आगे बढ़ी। उसके अध्यापक उसकी लगन देखकर हैरान थे। लेकिन किस्मत का पहिया फिर घूम गया। लक्ष्मी आंटी विदेश चली गईं और उनकी मदद रुक गई। फीस न भर पाने के कारण शालिनी को स्कूल छोड़ना पड़ा।
अब वह पानी की बोतलें बेचती, जूते पालिश करती और कभी भारी बोझ उठाती। लेकिन उसके दिल में आवाज़ गूंजती रही: “एक दिन सब बदलेगा। मुझे पढ़ना है, चाहे जैसे भी।”
वह चोरी-छिपे स्कूल की दीवारों के पास जाकर खड़ी रहती, जहाँ से अध्यापक की बातें सुन लेती। उँगली से मिट्टी पर लिखकर याद करती। बच्चे हँसते, शिक्षक डाँटते, पर उसकी लगन नहीं टूटी।
एक अनोखी दोस्ती
यहीं उसकी मुलाक़ात हुई जिया गुप्ता से—एक अमीर व्यापारी की बेटी, जो रॉयल क्रेस्ट इंटरनेशनल स्कूल में पढ़ती थी। जिया अमीर थी, लेकिन पढ़ाई में कमजोर और आत्मविश्वासहीन।
एक दिन उसने शालिनी को दीवार के पीछे से झाँकते पकड़ लिया। गुस्से के बजाय जिया ने उससे मदद माँगी। उस दिन से दोनों की गुप्त दोस्ती शुरू हो गई। रोज़ दोपहर 12:35 पर आम के पेड़ के नीचे वे मिलतीं—एक के पास चमचमाता टिफ़िन होता, दूसरी नंगे पाँव, फटे कपड़ों में लेकिन आँखों में उजाला।
शालिनी ने जिया को पढ़ाना शुरू किया। उसकी समझाने की शैली ऐसी थी कि जिया पहली बार कक्षा में उत्तर देने लगी। “कोई मुझे तालियाँ नहीं बजाता,” जिया ने कहा। शालिनी मुस्कुराई, “तो मैं तुम्हारे लिए तालियाँ बजाऊँगी।”
रहस्य उजागर
लेकिन ये राज़ ज़्यादा दिनों तक छिपा नहीं रहा। एक दिन जिया के पिता, चीफ़ गुप्ता, ने उन्हें साथ देख लिया। पहले तो हैरान हुए कि उनकी बेटी एक सड़क की लड़की से पढ़ाई कर रही है। लेकिन जब शालिनी ने काँपती आवाज़ में सच बताया—पिता नहीं, माँ बीमार, और सड़क ही घर है—तो उनका दिल पिघल गया।
जिया ने हाथ जोड़कर कहा, “पापा, इसे मत भगाइए।”
चीफ़ गुप्ता खुद शालिनी की माँ से मिलने गए। जब उन्होंने उस तंग गलियों वाले टूटे घर में आरती को देखा, तो उनकी आँखें नम हो गईं। उसी दिन से उन्होंने शालिनी को अपने घर बुला लिया।
नई सुबह
अगली सुबह, पहली बार शालिनी ने रॉयल क्रेस्ट स्कूल की यूनिफ़ॉर्म पहनी। लोग अब भी फुसफुसा रहे थे—“वो तो वही सड़क वाली लड़की है”—लेकिन शालिनी ने अपनी बुद्धि और मेहनत से सबको चुप करा दिया।
गुप्ता परिवार ने उसकी माँ का इलाज शुरू करवाया। धीरे-धीरे आरती की हालत सुधरी। एक दिन उसने अपनी बेटी को गले लगाकर कहा: “तू मेरी शालिनी है।” ये शब्द सुनकर लड़की रो पड़ी, लेकिन अबकी बार आँसू खुशी के थे।
जीत की उड़ान
अध्यापकों के प्रोत्साहन पर शालिनी ने छात्रवृत्ति परीक्षा दी। उसने पूरे आत्मविश्वास से हर सवाल हल किया। परिणाम आया तो पूरा स्कूल दंग रह गया—शालिनी ने टॉप किया था।
इस बार तालियाँ दया से नहीं, सम्मान से गूँज रही थीं। चीफ़ गुप्ता गर्व से मुस्कुराए, जिया खुशी से झूमी और माँ ने बेटी को सीने से लगाकर कहा: “तूने कर दिखाया।”
सबक
आज शालिनी सिर्फ़ एक सड़क की बच्ची नहीं, बल्कि सपनों को जीती हुई छात्रा है। उसने साबित कर दिया कि शिक्षा सबसे बड़ा हथियार है—जो गरीबी की जंजीरें तोड़ सकता है।
उसकी कहानी हमें यह याद दिलाती है:
कभी भी किसी को उसके हालात से मत आँको। एक सड़क की बच्ची भी आसमान तक पहुँच सकती है, अगर उसके पास सीखने का जुनून और किसी का थोड़ा सा सहारा हो।
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मेरे जीवन की शुरुआत बहुत साधारण थी। पढ़ाई ख़त्म करने के बाद मैं एक निर्माण कंपनी में काम करने लगा। शुरू-शुरू में मेरा काम सिर्फ़ मजदूरों और कर्मचारियों की टीम का प्रबंधन करना था। धीरे-धीरे मुझे काम की आदत हो गई, और जब लोगों से अच्छे रिश्ते बन गए तो मैंने हिम्मत जुटाई और अलग होकर अपनी एक छोटी सी कंपनी खड़ी कर दी। मेरी कंपनी देहरादून में थी, लेकिन काम पूरे उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश में मिलता था। इसलिए मैं हमेशा यात्रा करता रहता था। जब भी घर लौटता, मेरी पत्नी सुनीता अपने चेहरे पर वही संतोष और अपनापन लिए मेरा इंतज़ार करती। उसने तीन बच्चों—दो बेटे और एक बेटी—को जन्म दिया। मैंने उससे कहा कि अब खेती-बाड़ी छोड़कर सिर्फ़ बच्चों और घर पर ध्यान दे। आर्थिक बोझ मैं उठा लूँगा। सुनीता ने मेरी बात मान ली।
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