कहानी: “इंसाफ की बहन”
यह कहानी उत्तर प्रदेश के एक छोटे से गांव रसूलपुर से शुरू होती है, जहां मिट्टी के घरों में तीन जिंदगियां एक-दूसरे का सहारा बनी रहती थीं—मां रामेश्वरी, उनकी बेटी पिंकी और बेटा देवेश। पति रमेश की अचानक सड़क हादसे में मृत्यु के बाद, यह परिवार बिखरने से पहले ही खुद को समेटने लगा। रामेश्वरी ने मजदूरी संभाली, देवेश ने पढ़ाई के साथ-साथ काम करने की जिम्मेदारी उठा ली, और पिंकी अपनी मासूमियत व खुशियों से घर को संजोए रही।
देवेश अपनी बहन के लिए बड़ा सपना देखता था। अपनी पूरी मेहनत से, दिन-रात काम करता रहा और खुद को पढ़ाई में भी जुटाए रखा। उसका सपना था—एक दिन बड़ा बनकर मां को सुख और बहन को सुरक्षित जीवन देना। उसकी प्रेरणा, पिंकी, स्कूल की होनहार और कविता लिखने की शौकीन लड़की थी जिसकी दुनिया बस गांव और अपना छोटा सा घर था।
समय के साथ, पिंकी ने 12वीं पास की और शहर के कॉलेज में दाखिला भी पा लिया। देवेश ने हर डर व मुश्किल के बावजूद पिंकी की पढ़ाई को महत्व दिया, उसकी फीस जोड़ी और कॉलेज में भेजा। उधर, वह खुद भी कानून की पढ़ाई कर रहा था—उसने जज बनने का सपना अपने दिल में संजो लिया।
शहर की चकाचौंध और कॉलेज की नई दुनिया में, पिंकी की मुलाकात हुई सुरेंद्र से। सुरेंद्र अमीर था, उसके पास वह सब कुछ था, जो पिंकी की दुनिया से दूर था। धीरे-धीरे सुरेंद्र ने पिंकी को मोह से बांध लिया। उसने वादे किए, और एक दिन ऐसा मोड़ आया कि वह पिंकी को लेकर भाग गया। मां-पिता का डर, समाज की चिंता, और सुरेंद्र की चिकनी-चुपड़ी बातों में आकर, पिंकी ने पीछे सब कुछ छोड़ दिया।
घर से पिंकी के जाने पर रामेश्वरी और देवेश टूट गए। मां की सूनी पुकार और भाई की रात-दिन की तलाश के बावजूद, पिंकी कहीं दूर हो गई। देवेश ने हार माने बिना अपनी पढ़ाई जारी रखी। सालों बाद, उसकी मेहनत रंग लाई और वह जज बन गया। मां को उस पर नाज़ था, लेकिन हर खुशी में पिंकी की कमी सालती रही।
एक दिन, अदालत में एक तलाक का केस आया। पीड़िता का नाम सुनते ही, और उसके थके चेहरे को देखते ही, देवेश पहचान गया—यह उसकी बहन पिंकी थी। पंचनामे व गवाहियों में सिर्फ दर्द, अपमान और धोखे की दास्तान थी—सुरेंद्र ने शादी के बाद उसकी दुनिया को नरक बना दिया था। देवेश ने न्याय करते हुए उसे उसका हक दिलाया, लेकिन अपनी पहचान छुपाए रखी।
फैसले के बाद भी, पिंकी के चेहरे पर कोई खुशी नहीं थी, बस थकान और टूटन थी। अदालत की मर्यादा ने उसे रोक दिया, वरना देवेश चाहता था कि अपनी बहन को जोर से पुकारे। शाम को, अपने चैंबर में बैठा वह खुद को संभाल नहीं सका। उधर, पिंकी कोर्ट से निकल कर बस स्टैंड पर बैठी, सोचती रही—क्यों जज साहब की आवाज इतनी जानी-पहचानी थी?
फिर, देवेश ने खुद को चुप रहने नहीं दिया। उसने केस की फाइल में दिए पते पर जाकर पिंकी से मुलाकात की। दरवाजा खुलते ही पिंकी हैरान रह गई, जज साहब…? देवेश ने भर आई आंखों से कहा—”मैं तेरा भाई हूं पिंकी!” और सालों का दर्द, जुदाई, भय सब बहकर आंसुओं में निकल गए।
घर लौटने के बाद, तीनों फिर से एक परिवार बन गए। गांव में वह रात खुशियों की रात थी, लेकिन किस्मत की परीक्षा बाकी थी। सुरेंद्र ने फैसले को चुनौती दी—अब ऊपरी अदालत में मामला गया। आखिरकार, निष्पक्ष सुनवाई में पिंकी को नया जीवन, रक्षा और मुआवजा मिला। सुरेंद्र हमेशा के लिए उनकी जिंदगी से बाहर हो गया।
समय के साथ, पिंकी ने खुद को संभाला, पढ़ाई आगे बढ़ाई, मां-बेटे की सेवा की और एक एनजीओ में जुड़ गई, जहां धोखा खाई महिलाओं की मदद करती। देवेश ने अपनी बहन की इस यात्रा और संघर्ष को “इंसाफ की बहन” नामक किताब में दर्ज किया, जो हजारों जिंदगियों में उम्मीद का सूरज बनी।
कई साल बीते, दोनों अपने जीवन में सफल हुए, शादी हुई, बच्चे हुए, मगर भाई-बहन का रिश्ते की डोर मजबूत ही रही। मां अब दादी बन गई और उनके चेहरे पर फिर सुकून लौट आया।
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