कथा: एक सच्ची भक्ति
नगर के बीचों-बीच एक भव्य, प्राचीन मंदिर स्थित था। विशाल पत्थर के स्तंभ, सोने की जराई वाली ऊँची शिखर, और चारों तरफ बजती घंटियों की गूंज उसे और भी दिव्य बनाती थी। दूर-दूर से लोग यहाँ भगवान के दर्शन करने आते थे। मंदिर की सीढ़ियाँ चौड़ी, चमचमाती और भव्य थीं। इस मंदिर का प्रबंधन वर्षों से अमीर और प्रतिष्ठित परिवारों के हाथों में था।
सुबह की आरती का समय था। लोग अपने सबसे सुंदर वस्त्र पहनकर, इत्र लगाकर, फूल और प्रसाद थामे हुए कतार में खड़े थे। पुजारी और मंदिर के सेवादार हर आने जाने वाले पर नजर रखे थे—किसके कपड़े कितने कीमती हैं, किसके माथे पर चंदन का टीका कितना दमक रहा है।
भीड़ में एक महिला अपने बच्चे को सुंदर सजा कर लाई थी। जब वह पुजारी के आगे झुकी तो पुजारी बोल पड़ा, “बहुत अच्छे वस्त्र हैं, भगवान जरूर प्रसन्न होंगे।” वहाँ अब भक्ति से ज्यादा दिखावे, संपन्नता और बड़े दान की चर्चा थी। कठिनाई से जीवन जीने वाले भक्त तो अक्सर मंदिर के पीछे धकेल दिए जाते थे।
रामेश्वर का प्रवेश
ठीक उसी सुबह, एक साधारण कपड़े पहने, मिट्टी-सी रंगत वाले, लगभग 50 वर्ष के व्यक्ति ने मंदिर की सीढ़ियाँ चढ़ना शुरू किया। उसका नाम था “रामेश्वर”। उसके कपड़े पुराने और फटे थे, चप्पलें टूटी हुई, बाल बिखरे हुए। हाथ में एक छोटी-सी थैली थी जिसमें थोड़ा सा फूल और प्रसाद रखा था।
जैसे ही वह मंदिर के द्वार के पास आया, एक सेवादार ने उसे रोक लिया—“कहाँ चले आ रहे हो? तेरे जैसे लोगों को मंदिर में घुसने देंगे? देख, तेरे कपड़े कैसे हैं!” भीड़ में हँसी गूंजी। किसी ने कहा—“भीख मांगने आया है?” और उसे बाहर की ओर धकेल दिया गया। रामेश्वर ने शांत चेहरे से बस इतना कहा—“मैं तो भगवान के चरणों में बैठना चाहता था।” लेकिन किसी ने ध्यान नहीं दिया। वह बाहर सीढ़ी पर बैठ गया और वहीं हाथ जोड़कर भगवान का नाम जपने लगा।
भक्ति या दिखावा?
मंदिर के भीतर आरती गूंज रही थी, बाहर रामेश्वर अकेले जप कर रहा था। भीतर अमीरी और दिखावे की चमक थी, बाहर सच्ची भक्ति का मौन। मंदिर में अब दान वा भव्यता की चर्चा थी। अगले हफ्ते जीर्णोद्धार के लिए भारी दान माँगा गया। बड़े नामी लोग आगे आए लेकिन कोई इतनी बड़ी राशि देने को तैयार नहीं हुआ। पंचायत के मुखिया ने बताया—एक “अज्ञात दाता” ने करोड़ों का दान देने का वचन दिया है; सभी हैरान थे कि कौन है वो?
रामेश्वर वहीं सीढ़ी पर बैठा मुस्करा रहा था। लोग उसके नाम पर हँस रहे थे, ताने मार रहे थे। वह सब सुनकर भी मौन था। उसके मन में यही बात थी, “भगवान मेरे वस्त्र नहीं, मेरा हृदय देखेगा।”
सच्चे दाता का परिचय
फिर वह दिन आया। मंदिर सुनहरी रोशनी में सजा था। सबको किसी बड़े सेठ, व्यापारी या अमीर आदमी के आने की प्रतीक्षा थी। घंटों बाद जब कोई बड़ी गाड़ी नहीं आयी, तो धीरे-धीरे रामेश्वर अपने फटे कपड़ों, साधारण थैली के साथ सीढ़ियाँ चढ़ता आया। लोग चौंक उठे, कोई बोला “फिर से आ गया, इसे बाहर करो।”
तभी प्रधान पुजारी ने सभी को चौंकाते हुए घोषणा की—“यही हमारे मंदिर के महान दाता रामेश्वर जी हैं।” भीड़ स्तब्ध रह गई। पुजारी ने बताया—“रामेश्वर कभी गांव के बड़े जमींदार थे। सब कुछ बिक जाने के बाद भी इन्होंने अपनी सारी बचत भगवान के नाम कर दी और मंदिर को 5 करोड़ रुपये दान दिए। इन्होंने शर्त रखी थी कि इनका नाम छुपा रहे।”
भीड़ के लोगों को अपनी गलती पर शर्म आई। जिन्होंने ताने मारे, उन्हें भी सिर झुकाना पड़ा।
रामेश्वर की सीख
रामेश्वर मुस्कुराते हुए बोला—“मैंने दान भगवान को दिया, दिखावे के लिए नहीं। आपने मुझे कपड़ों से परखा, वो आपकी दृष्टि थी, पर भगवान हृदय देखते हैं।” उस दिन के बाद मंदिर का स्वरूप बदल गया—अब सभी भक्त एक पंक्ति में खड़े होते, कोई किसी को कपड़ों या पैसे से नहीं आंकता। मंदिर समिति ने भी तय किया कि अब दानियों का नाम नहीं लगाया जाएगा, बस भगवान का नाम ही सर्वोपरि रहेगा।
अंतिम प्रणाम
रामेश्वर की अंतिम सांसें भी मंदिर की उन्हीं सीढ़ियों पर भगवान का नाम लेते हुए निकलीं। जब वो इस दुनिया से विदा हुआ, कहते हैं उस दिन मंदिर की घंटियाँ बिना किसी के छुए अपने-आप बजने लगीं।
आज भी गाँव में यही बताया जाता है—एक फटे कपड़ों वाले भक्त ने हमें असली भक्ति और दान का अर्थ समझा दिया।
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