गरीब बच्चा होटल में रो रहा था, लेकिन फिर जो वेटर ने किया… सबकी आंखें भर आईं !
दिल्ली के कनॉट प्लेस के बीचों-बीच: एक कहानी, एक इंतजार
दिल्ली के कनॉट प्लेस के दिल में बसा “रॉयल स्प्रिंग” होटल, जहां बाहर चमचमाती गाड़ियाँ और अंदर शाही फर्नीचर की जगमगाहट थी। दोपहर का वक्त, एसी की ठंडक, धीमा क्लासिकल म्यूज़िक, बिजनेसमैन की हँसी और वेटर्स की फुर्तीली चाल—हर चीज़ परफेक्ट थी। तभी होटल के काँच के दरवाज़े से एक नन्हा बच्चा अंदर आया, उम्र लगभग 9 साल, धूल से सना चेहरा, गंदी शर्ट, नंगे पाँव। उसकी आँखों में आँसू थे, लेकिन वो चुपचाप एक कोने में बैठ गया।
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कुछ मेहमानों ने उसे देखा, नजरें फेर लीं। होटल मैनेजर आया, सख्त आवाज़ में बोला, “कहाँ से आया रे? बाहर जा! यहाँ भीख माँगने नहीं आना।” बच्चा चौंका, मगर कुछ बोला नहीं। तभी एक वेटर, मोहन, सामने आया। उसने बच्चे से नाम पूछा—राहुल। राहुल ने डरते-डरते कहा, “दो दिन से कुछ खाया नहीं।” मोहन की आँखें पिघल गईं। राहुल ने जेब से एक पुराना फटा फोटो निकाला—उसके पापा की तस्वीर। “दो दिन पहले यहीं किसी होटल में काम पर आए थे, लौटे नहीं।”
मोहन ने फोटो देखी, कुछ याद आया। स्टाफ वॉल पर 2018 की ग्रुप फोटो पलटी। चौथी लाइन में वही चेहरा—विजय। मोहन ने मैनेजर को बताया, “सर, ये बच्चा अपने पिता को ढूंढ रहा है, जो हमारे पुराने स्टाफ मेंबर थे।” मैनेजर ने कहा, “वो तो सालों पहले खुद गया था, चोरी का इल्जाम था।” मोहन बोला, “सर, वो कभी चोर नहीं था। अगर उसका बेटा आज भूखा बैठा है, तो शायद हमने ही कुछ खो दिया है।”
मोहन ने राहुल को खाना खिलाया—गर्म रोटियाँ, दाल, चावल, मिठाई। राहुल की आँखों से आँसू बहने लगे, लेकिन अब भूख से नहीं, प्यार से। मोहन की आँखें भी नम हो गईं। खाने के बाद राहुल स्टाफ रूम में सो गया—पहली बार बिना डर और भूख के।
दीवार से टिके मोहन के हाथ में विजय की फोटो थी। दिल में हलचल थी। विजय सिर्फ उसका साथी नहीं, बड़ा भाई था। सात सालों से कोई संपर्क नहीं था। बचपन में दोनों बिहार के गाँव से दिल्ली आए थे। विजय ने रिक्शा चलाया, होटल में नौकरी की, मोहन को पढ़ाया। फिर एक दिन चोरी का झूठा इल्जाम लगा, विजय गायब हो गया।

अब विजय का बेटा उसके सामने था। मोहन ने स्टाफ लॉकर से विजय की डायरी निकाली। आखिरी पन्ने पर लिखा था—”अगर कभी मेरी जगह होता, तो समझ पाता। मेरा बेटा राहुल तेरे जैसा मजबूत बने, यही दुआ है।” मोहन की आँखें बह चलीं। उसने राहुल से कहा, “तेरे पापा मेरे भाई हैं। तू मेरा भतीजा है।” राहुल मोहन से लिपट गया।
अब मोहन ने ठान लिया—विजय को ढूंढना है। अगले दिन छुट्टी ली। करोल बाग के विश्वकर्मा चौराहा से तलाश शुरू की। तीन दिन बाद एक कबाड़ी वाले ने बताया—”विजय बाबू अस्पताल में हैं।” मोहन भागा, सरकारी अस्पताल के बेड नंबर 23 पर विजय को पाया। दोनों भाई, सालों बाद, आँसूओं में मिले। राहुल भी अपने पापा को पाकर गले लग गया।
कुछ दिन बाद विजय ठीक हो गया। होटल में नई नौकरी मिली, इज्जत के साथ। राहुल स्कूल जाने लगा। होटल में सबको कहानी पता चल गई।
हर बच्चा जो कोने में बैठा हो, जरूरी नहीं कि वो सिर्फ भूखा हो। हो सकता है वो अपने वजूद को तलाश रहा हो। कभी नजरें फेरने से पहले एक बार देख लेना।
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