सर्दियों की एक सुबह की कहानी
सर्दियों की ठंडी सुबह थी। सूरज की किरणें अभी पूरी तरह ज़मीन को नहीं छू पाई थीं। लेकिन मंदिर के आंगन में झाड़ू की आवाज़ गूंज रही थी। एक वृद्धा, करीब 70 साल की, झुकी कमर और कांपते हाथों से मंदिर की सीढ़ियाँ साफ़ कर रही थी। उसकी साड़ी पुरानी थी, रंग हल्का गुलाबी और धुंधला, लेकिन पहनावा बहुत सलीकेदार था। बाल चांदी जैसे कसकर बंधे थे। चेहरा थका हुआ था, लेकिन आँखों में अजीब सी शांति थी।
पास से गुजरते श्रद्धालु उसे अनदेखा कर रहे थे। कुछ ने नज़रें घुमा ली, कुछ ने ताना कसा—”कहाँ हैं इनके अपने? बुजुर्ग औरत मंदिर में झाड़ू लगाएगी, क्या मजबूरी रही होगी? लगता है प्रसाद के लालच में आ गई होगी।” ताने हवा में तीर की तरह चल रहे थे। लेकिन वृद्धा की चाल नहीं रुकी। उसने हल्की मुस्कान दी और झाड़ू चलाती रही।
मंदिर के एक कोने में खड़े कुछ युवक हँसते हुए बोले—”समाज पर बोझ हैं ऐसे लोग, ना परिवार, ना घर। मंदिर को ही घर बना लिया।” एक ने ज़ोर से कहा ताकि वह सुन ले—”दादी, अब बस भी करो। मंदिर को नहीं, खुद को साफ़ करने की ज़रूरत है।” वृद्धा चुप रही। उसने झाड़ू एक तरफ रखी और मंदिर की दीवार के पास बैठ गई।
कुछ देर बाद जब आरती की तैयारी होने लगी, एक महिला श्रद्धालु जो यह सब देख रही थी, धीरे से पास आई और बोली—”माँ जी, एक बात पूछूँ? आप रोज़ सुबह इतनी मेहनत करती हैं, यह सब क्यों? कोई काम वाली हो आप?” वृद्धा ने एक पल को महिला की आँखों में देखा, फिर अपनी ब्लाउज के कोने से एक पुरानी, हल्की मुड़ी फोटो निकाली। फोटो देखकर महिला पहले तो कुछ समझ नहीं पाई, लेकिन जैसे ही वृद्धा ने एक नाम लिया—”अद्वैत”—पूरा मंदिर परिसर जैसे रुक गया।
पास खड़े पुजारी ने वह नाम सुना, उसकी आँखें फैल गईं। आसपास खड़े श्रद्धालु चौंक पड़े। एक युवक ने झट से मोबाइल निकाला और फोटो से मिलान किया—”अरे, यह तो वही हैं, अद्वैत शर्मा! भारत के सबसे युवा सुप्रीम कोर्ट जज बने थे पिछले साल। पूरी दुनिया में इनके भाषण की तारीफ हुई थी। यह उनकी माँ हैं! अरे, यही तो वह औरत है जिसे अभी तक सब ताने मार रहे थे।”
मंदिर में सन्नाटा छा गया। वे सब जो अभी कुछ समय पहले तक उसे हिकारत की निगाह से देख रहे थे, अब उनकी आँखों में शर्म और हैरानी थी। मंदिर का माहौल जैसे ठहर गया था। चारों तरफ कानाफूसी शुरू हो गई थी—”क्या सच में यह वही हैं? इतनी साधारण सी लगती हैं और बेटे का नाम हर न्यूज़ में था।”
पुजारी जी खुद आगे आए और श्रद्धा से झुककर बोले—”माताजी, आप तो पहले भी आती थीं, पर कभी बताया नहीं।” वृद्धा ने मुस्कुरा कर कहा—”बोलना ज़रूरी नहीं होता बेटा। जो करना है वह शांति से करो, बिना पहचान के, बिना सम्मान के।”
फिर पास खड़ी वह महिला जिसने फोटो देखी थी, झिझकते हुए बोली—”पर माँ जी, आपने कभी बताया क्यों नहीं? अगर आप चाहें तो आपको वीआईपी हॉल में बैठाया जा सकता है। इतने बड़े जज की माँ होने के बावजूद आप झाड़ू लगाती रहीं?” वृद्धा ने झाड़ू की लकड़ी को प्यार से सहलाते हुए जवाब दिया—”मैं इस मंदिर में तब से आ रही हूँ जब मेरा अद्वैत छह साल का था। यहीं की मिट्टी से उठाकर मैंने उसे पहली बार स्कूल भेजा था। उसी दिन व्रत लिया था—जब तक मेरा बेटा अपने ज्ञान से दुनिया का न्याय नहीं करेगा, तब तक मैं हर सुबह इस मंदिर की सफाई करूंगी, सेवा करूंगी बिना किसी नाम या दिखावे के।”
पास खड़े एक नौजवान ने हैरानी से पूछा—”पर आपने कभी चाहा नहीं कि लोग जानें, इतना बड़ा त्याग क्यों?” वृद्धा ने गहरी सांस ली और धीरे से बोली—”क्योंकि जो सच में बड़ा होता है, उसे किसी पहचान की ज़रूरत नहीं होती। मेरे लिए सबसे बड़ा सम्मान यह है कि मेरा बेटा न्याय करता है और मैं उसकी माँ होकर भी केवल एक भक्त बनी रहूँ। मैं अगर बताती तो लोग सम्मान करते मेरे बेटे की वजह से। मैं चाहती थी कि मुझे देखा जाए मेरी सेवा से या फिर बिल्कुल ना देखा जाए।”
इतना कहकर वृद्धा ने झाड़ू वापस उठाई और आरती से पहले के आंगन की आखिरी पंक्ति में सफाई शुरू कर दी। अब वही लोग जो ताने मार रहे थे, जिनकी नजरों में वह एक बेचारी औरत थी, अब सिर झुकाए खड़े थे। मंदिर समिति के सदस्य आए और बोले—”माता जी, कृपया मंदिर की तरफ से कुछ स्वीकार कीजिए। एक सम्मान पत्र और सेवा भत्ते के लिए योजना बनाई जा सकती है।” वृद्धा ने विनम्रता से हाथ जोड़कर कहा—”सेवा को योजना मत बनाओ बेटा। यह मंदिर मेरा घर है और मेरी सेवा मेरी पूजा।”
भीड़ में खड़ा एक युवक जो पहले उसका मज़ाक उड़ा रहा था, अब ज़मीन पर बैठ गया और उसकी आँखों से आँसू बह निकले। मंदिर की आरती समाप्त हो चुकी थी। हर चेहरा अब शांत था और हर मन थोड़ा बोझिल। कोई सोच में डूबा था, कोई खुद से शर्मिंदा।
इसी बीच मंदिर के मुख्य द्वार पर एक काले रंग की सरकारी गाड़ी आकर रुकी। गाड़ी से दो सुरक्षाकर्मी उतरे और गाड़ी का पिछला दरवाजा खोला। भीड़ चौंक कर पीछे हट गई। एक ऊँची सधी हुई चाल वाला शख्स बाहर निकला—सफेद कुर्ता-पायजामा, ऊपर हल्की जैकेट, चेहरे पर गंभीरता और आँखों में करुणा। अद्वैत शर्मा—सुप्रीम कोर्ट का जज। देश की सबसे बड़ी अदालत का सबसे छोटा न्यायाधीश, जिसने अपने भाषणों में हमेशा न्याय से पहले संवेदना की बात की थी।
भीड़ धीरे-धीरे पीछे हटने लगी। जो लोग अभी तक एक साधारण वृद्धा को झाड़ू लगाते देख रहे थे, अब उन्हीं की ओर उसी वृद्धा का बेटा बढ़ रहा था। वह सीधे अपनी माँ के पास पहुँचा, जो अब भी मंदिर के कोने में बैठी थी, झाड़ू को गोद में रखकर। उसने उनके पैर छुए—”माँ, मुझे माफ़ करना। आज सुबह की घटना सुनते ही चला आया।” वृद्धा मुस्कुराई लेकिन कुछ नहीं कहा।
पास खड़े पुजारी, मंदिर के ट्रस्टी और तमाम श्रद्धालु अब मौन थे। वह सभी जो कुछ घंटे पहले तक तिरस्कार से देखते थे, अब ज़मीन की ओर देख रहे थे। एक युवक, जो सबसे पहले ताना मार रहा था, चुपचाप आगे आया। उसने अद्वैत की माँ के सामने हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाते हुए कहा—”माताजी, हमसे बहुत बड़ी भूल हो गई। हमने आपको पहचाना नहीं। हमारे शब्दों ने शायद आपका दिल दुखाया होगा।”
वृद्धा ने बस एक बात कही—”पहचान की कोई ज़रूरत नहीं बेटा। जो सेवा करता है, उसे बस अपने इरादे साफ रखने चाहिए। और तुम्हारा पश्चाताप ही तुम्हारी पहचान है।”
अद्वैत ने तब मंदिर समिति की ओर देखा और कहा—”मेरी माँ ने मुझे सिखाया था—अपने अधिकार से पहले कर्तव्य को पहचानो। उन्होंने मुझे नहीं बताया कि वह यहाँ क्या करती हैं। लेकिन आज मैंने जाना—माँ सिर्फ जन्म नहीं देती, वह समाज को संस्कार भी देती है। चुपचाप, बिना कैमरे, बिना तालियों के।”
अद्वैत ने आगे बढ़कर उस स्थान पर माथा टेका, जहाँ उसकी माँ झाड़ू रखा करती थी। वह जगह अब किसी मंदिर के गर्भगृह से कम नहीं लग रही थी। अद्वैत अब मंदिर के प्रांगण में बैठा था, अपनी माँ के चरणों में। आसपास खड़े सभी लोग अब सिर्फ दर्शक नहीं बल्कि गवाह बन चुके थे एक ऐसी कहानी के, जो शायद ही कभी दोहराई जाए।
वृद्धा ने अद्वैत के सिर पर हाथ रखते हुए कहा—”बेटा, मैंने तुम्हें दुनिया का सबसे बड़ा पद पाने की दुआ माँगी थी। लेकिन आज समझ आया, असली पद वह है जिसे लोग पहचानें नहीं, बस महसूस करें।”
मंदिर के ट्रस्टी सामने आए और हाथ जोड़कर बोले—”माता जी, हम शर्मिंदा हैं। आपने ना सिर्फ सेवा की बल्कि हमारी सोच को भी पवित्र किया। आप चाहें तो हम आपको मंदिर की संरक्षक बना सकते हैं। आपके नाम से एक विशेष सेवा योजना भी शुरू करेंगे।” वृद्धा मुस्कुराई—”मुझे कुछ नहीं चाहिए। बस इतना कर दो—हर सुबह जब मंदिर खुले, सबसे पहले झाड़ू चले और झाड़ू उस इंसान के हाथ में हो जिसे किसी ने बेकार समझा हो। तभी मंदिर पवित्र कहलाएगा।”
उनकी बात सुनकर मंदिर में सन्नाटा छा गया। लेकिन उस सन्नाटे में श्रद्धा की गूंज थी। अब तक जो लोग चुप थे, उनके मन में एक क्रांति हो चुकी थी। कुछ ही घंटों में मीडिया तक बात पहुँच चुकी थी। लेकिन वृद्धा ने किसी भी कैमरे के सामने बोलने से इंकार कर दिया—”सेवा तब तक सेवा रहती है जब तक वह खबर ना बने।”
अद्वैत ने बस एक बयान दिया—”अगर मेरी माँ आज देश की सबसे बड़ी अदालत की माँ बन सकती है, तो सिर्फ इसलिए क्योंकि उन्होंने सबसे बड़ी सच्चाई को जिया—बिना किसी नाम, बिना किसी सम्मान के।”
अगले ही दिन मंदिर की दीवार पर एक नई पट्टी लगाई गई—”यहाँ हर सुबह की शुरुआत उस हाथ से होगी जिसे दुनिया ने कभी बोझ समझा हो।”
और उस दिन के बाद से वह वृद्धा अब अकेली नहीं थी। हर सुबह कोई ना कोई वृद्ध, कोई बुजुर्ग महिला, कोई अनदेखा चेहरा मंदिर आकर कहता—”मुझे भी सेवा करनी है। मुझे भी पहचान नहीं, सम्मान चाहिए।”
सच्चा सम्मान वह होता है जो बिना माँगे, बिना पहचाने दिया जाए।
किसी के वस्त्र, उम्र या हालात देखकर मत आँको।
क्योंकि जिस झाड़ू को तुम देख नहीं रहे थे, वही आज समाज का आईना बन गई।
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