दो नादान लड़के, एक बस और एक पुलिसवाले की कहानी

उत्तर प्रदेश परिवहन निगम की एक पुरानी बस, लखनऊ की भीड़ से निकलकर पूर्वांचल के एक छोटे कस्बे की ओर जा रही थी। बस में आम हिंदुस्तान की झलक थी—कोई अपनी सीट के लिए लड़ रहा था, कोई फोन पर बातें कर रहा था, कोई किसान अपनी पगड़ी संभालता ऊंघ रहा था। खिड़की के पास एक अधेड़ उम्र का साधारण आदमी बैठा था—पैंट शर्ट, घिसी चप्पलें, चेहरे पर थकान और आंखों में गहरी सोच। ठीक उसके पीछे दो कॉलेज के छात्र—रोहन और समीर—बैठे थे, जो छुट्टियों में घर जा रहे थे।

बस एक बड़े चौराहे पर रुकी, जहां ट्रैफिक पुलिस का सिपाही गाड़ियों को नियंत्रित कर रहा था। रोहन ने समीर से कहा, “देख, आ गया हफ्ता वसूलने वाला।” समीर हंस पड़ा, “इनकी तो पांचों उंगलियां घी में हैं। दिनभर नाटक, रात में नोटों से जेबें भरी।” आगे बैठे आदमी ने गर्दन घुमाई, पर कुछ कहा नहीं।

दोनों लड़कों ने पुलिस की बुराई शुरू कर दी—”कामचोर हैं, थाने में पान चबाते हैं, आम आदमी को घुमाते हैं, बड़े आदमी के सामने कुर्सी खाली कर देते हैं, गंदी गालियां देते हैं, बिना पैसे के एफआईआर नहीं लिखते, हर काम का रेट फिक्स है। देश को दीमक की तरह खा रहे हैं।” उनकी बातें तेज होती गईं, फिल्मी डायलॉग मारने लगे, पुलिसवालों की नकल उतारने लगे। बस में बैठे कुछ लोग मुस्कुरा रहे थे, कुछ सिर हिला रहे थे।

करीब एक घंटा गुजर गया। लड़कों का जोश चरम पर था। उन्होंने पुलिस की बुराई करते-करते पूरे सिस्टम को कोसना शुरू कर दिया। तभी बस एक ढाबे पर रुकी। सब लोग नीचे उतरे। रोहन और समीर भी अपनी सीट से उठे। रोहन ने जानबूझकर ऊंची आवाज में कहा, “चलो भाई, चाय पीते हैं, क्या पता यहां भी कोई मामू मिल जाए और पैसे उसी से वसूल लें।”

यह सुनते ही आगे बैठे आदमी के सब्र का बांध टूट गया। वह धीरे-धीरे उठा, पीछे मुड़ा और दोनों लड़कों की आंखों में आंखें डालकर देखा। उसकी आंखों में गुस्सा नहीं था, बल्कि गहरी उदासी थी। उसने शांत आवाज में कहा, “तुम लोग शायद सही कह रहे हो। पुलिस में बहुत से लोग बेईमान होंगे, रिश्वतखोर होंगे, कामचोर होंगे। लेकिन सब ऐसे नहीं होते।” उसने अपनी जेब से एक पुराना बटुआ निकाला, उसमें से पुलिस का पहचान पत्र निकाला—नाम था इंस्पेक्टर अमर सिंह। “क्योंकि मैं भी पुलिस में हूं।”

रोहन और समीर के पैरों तले जमीन खिसक गई। चेहरे का रंग उड़ गया। उन्हें लगा अब तो वह गए काम से। अब यह इंस्पेक्टर उन्हें यहीं बस में मारेगा या थाने ले जाएगा। लेकिन इंस्पेक्टर अमर सिंह मुस्कुराए—एक फीकी, दर्द भरी मुस्कान। “डरो मत। मैं तुम्हें कुछ नहीं करूंगा। ना मारूंगा, ना जेल में डालूंगा। तुमने पिछले घंटे में बहुत कुछ कहा, अब पांच मिनट मेरे भी सुन लो।”

उन्होंने दोनों को वापस सीट पर बैठने का इशारा किया, खुद भी उनकी बगल वाली सीट पर बैठ गए। खिड़की के बाहर देखते हुए कहना शुरू किया—”तुमने कहा, पुलिस वाले कामचोर होते हैं। मैं पिछले तीन महीनों से अपने घर नहीं गया हूं। मेरी बेटी का छठा जन्मदिन था, मैं नहीं जा पाया। मेरी पत्नी अकेली मेरे बूढ़े मां-बाप की देखभाल कर रही है। मैं उससे दिन में सिर्फ दो मिनट बात कर पाता हूं, वो भी तब जब वह सो रही होती है। क्यों? क्योंकि मेरे शहर में एक अपहरण का केस चल रहा है, जब तक वह बच्ची मिल नहीं जाती, मुझे छुट्टी नहीं मिल सकती।

तुमने कहा, हम रिश्वतखोर होते हैं। शायद कुछ होते होंगे, लेकिन मैंने अपनी तनख्वाह के अलावा एक रुपया भी हराम का नहीं कमाया। ये चप्पलें पिछले दो साल से पहन रहा हूं, क्योंकि नई खरीदने के पैसे नहीं हैं। मेरी तनख्वाह का ज्यादातर हिस्सा मां-बाप की दवाइयों और बच्चों की फीस में चला जाता है।

तुमने कहा, हम गालियां देते हैं। बेटा, जब तुम अपने घरों में मां-बहन के साथ टीवी देख रहे होते हो, तब हम रात के अंधेरे में अपराधियों, हत्यारों, बलात्कारियों का सामना कर रहे होते हैं, जिनकी भाषा में ‘धन्यवाद’ नहीं होता। जब तुम जले-कटे जिस्म देखते हो तो रूह कांप जाती है, हम रोज ऐसे जिस्मों को उठाते हैं। जब तुम किसी मां को बेटे की लाश पर रोते देखते हो, तो दिल फट जाता है, हम रोज किसी मां को यह खबर देने का पत्थर दिल काम करते हैं। धीरे-धीरे हमारा दिल भी पत्थर का हो जाता है, जुबान कड़वी हो जाती है, हम हंसना भूल जाते हैं।

तुमने कहा, हम टोंद वाले, सुस्त होते हैं। हमारी कोई ड्यूटी का समय नहीं होता, ना सोने का, ना खाने का। कभी-कभी 24-48 घंटे बिना सोए, बिना खाए, दंगे या वीआईपी सुरक्षा में खड़ा रहना पड़ता है। धूप, बारिश, ठंड में, इस तनाव में शरीर कब जवाब दे जाए, पता नहीं चलता।

उन्होंने जेब से एक मुड़ी तस्वीर निकाली—परिवार की तस्वीर। “यह मेरा परिवार है। मैं इनसे बहुत प्यार करता हूं, लेकिन अपनी वर्दी से ज्यादा प्यार करता हूं। क्योंकि यह वर्दी मुझे तुम जैसे लाखों लोगों के परिवारों की हिफाजत करने की जिम्मेदारी देती है।”

“हां, हमारे बीच कुछ काली भेड़े हैं। मैं मानता हूं कुछ लोग वर्दी को दागदार करते हैं। लेकिन उनकी वजह से तुम हजारों-लाखों ईमानदार और जानबाज पुलिस वालों के बलिदान को मजाक में नहीं उड़ा सकते। जो रोज अपनी जान हथेली पर रखकर सिर्फ इसलिए घर से निकलते हैं ताकि तुम लोग अपने घरों में सुरक्षित रह सको।”

इंस्पेक्टर अमर सिंह की बात खत्म हुई, तो बस में सन्नाटा छा गया। रोहन और समीर की आंखें शर्म और पछतावे के आंसुओं से भरी थीं। उनके सिर झुके थे। आज उन्हें अपनी सोच, अपने शब्दों, अपनी नासमझी पर बेहद शर्मिंदगी थी। उन्होंने आज तक सिक्के का सिर्फ एक पहलू देखा था, आज इंस्पेक्टर अमर सिंह ने उन्हें दूसरा, दर्दनाक और गौरवपूर्ण पहलू दिखाया था।

रोहन ने कांपते हाथों से इंस्पेक्टर अमर सिंह के हाथ पकड़ लिए—”सर, हमें माफ कर दीजिए। हमसे बहुत बड़ी गलती हो गई। हम अंधे थे, हमने कभी इस तरह से सोचा ही नहीं।” समीर भी रोते हुए बोला—”हां सर, आज के बाद कभी किसी पुलिस वाले का अपमान नहीं करेंगे। आपने आज हमारी आंखें खोल दी।”

इंस्पेक्टर अमर सिंह ने उनके सिर पर हाथ फेरा—”माफी मुझसे नहीं, अपने जमीर से मांगो बेटा। अगर सच में गलती का एहसास है तो आज के बाद जब भी किसी पुलिस वाले को देखना, नफरत से नहीं, इज्जत से देखना। हो सके तो मुस्कुरा कर सिर्फ एक बार थैंक यू कह देना, हमारे लिए वही सबसे बड़ा इनाम होता है।”

ढाबा आ गया था, बस रुकी। इंस्पेक्टर अमर सिंह बोले—”चलो, अब तुम लोगों ने जो कहा था, वो करते हैं। मैं तुम दोनों को अपनी तरफ से चाय पिलाता हूं।” तीनों बस से उतरे, लेकिन आज रोहन और समीर एक पुलिस वाले के साथ नहीं, बल्कि एक पिता, एक गुरु, एक हीरो के साथ चल रहे थे।

उस दिन के बाद रोहन और समीर की जिंदगी बदल गई। उन्होंने पुलिस के बारे में ही नहीं, बल्कि जिंदगी के हर पहलू को नए, संवेदनशील नजरिए से देखना शुरू किया। रोहन पत्रकार बना, अपनी कलम से पुलिस और समाज के बीच की खाई पाटने लगा, पुलिस की अच्छी कहानियों को दुनिया के सामने लाता है। समीर ने सिविल सर्विस की परीक्षा दी और आज भारतीय पुलिस सेवा का एक युवा, ईमानदार अफसर है। वह अपने रंगरूटों को बस के उस सफर की कहानी सुनाता है और इंस्पेक्टर अमर सिंह की सीख देता है—वर्दी का रंग खाकी जरूर है, लेकिन उसका धर्म इंसानियत ही होना चाहिए।