शहीद के बेटे की कहानी: जूते की धूल से सेना की वर्दी तक

बस अड्डे की भीड़ में रोज सैकड़ों लोग आते-जाते हैं। लेकिन किसी की नजर उस छोटे से बच्चे पर नहीं जाती, जो अपनी मासूम हथेलियों से सबके जूते चमकाता है। लोग उसके काम को देखकर कुछ पैसे फेंक देते हैं, कुछ बिना पैसे दिए निकल जाते हैं। पर कोई नहीं जानता कि यह बच्चा कौन है, उसकी मुस्कान के पीछे कितना बड़ा दर्द छुपा है।

शायद आपको हैरानी होगी यह जानकर कि यह मासूम बच्चा उस फौजी का बेटा है, जिसने अपनी आखिरी सांसें देश की हिफाजत में दी थीं। यह कहानी है एक शहीद फौजी के बेटे की, जिसे रेलवे स्टेशन पर लोगों के जूते पॉलिश करने पड़ते हैं।

सुबह का वक्त है, बस अड्डा शोरगुल से भरा हुआ है। लोग जल्दी-जल्दी बस पकड़ने भाग रहे हैं। इसी अफरातफरी के बीच, एक कोने में वह छोटा सा बच्चा बैठा है। उसकी उम्र मुश्किल से 10-11 साल होगी। बाल बिखरे हुए, कपड़े मैले और पैबंद लगे हुए। उसके छोटे हाथों में एक चमड़े की डिब्बी है, जिसमें ब्रश और पॉलिश रखी है। वह राहगीरों को आवाज लगाता है—”भैया, जूते पॉलिश करवा लो, सिर्फ पांच रुपये में चमक जाएंगे।”

कुछ लोग अनसुना कर निकल जाते हैं, कुछ रुकते हैं, जूते आगे कर देते हैं। उसकी मासूमियत पर कोई मुस्कुराता नहीं, बल्कि उसकी मजबूरी देखकर खामोश हो जाता है। उसके हाथ छोटे हैं, लेकिन काम करने की गति तेज है। वह हर जूते को ऐसे साफ करता है जैसे उसमें अपनी इज्जत ढूंढ रहा हो। चेहरे पर हल्की मुस्कान है, लेकिन आंखों में दर्द छुपा है।

कभी-कभी वह बच्चा पॉलिश करते-करते अचानक रुक जाता है, चाय वाले की दुकान की ओर देखता है, जहां गर्म-गर्म समोसे तले जा रहे हैं। उसकी आंखें उन समोसों पर टिक जाती हैं, पेट में गड़गड़ाहट होती है, लेकिन उसके पास इतने पैसे नहीं होते कि जाकर कुछ खा सके। सिर झुकाकर फिर से ब्रश उठाता है और जूते चमकाने लगता है।

कुछ लोग ताने मारते हैं—”अरे पढ़ाई छोड़कर यह काम क्यों कर रहा है? आजकल के बच्चे भी काम-धंधे में लग जाते हैं, पढ़ाई नहीं करनी।” लेकिन किसी को नहीं पता कि यह बच्चा क्यों यहां बैठा है, उसकी किताबें, उसकी कॉपियां, उसकी मासूमियत वक्त ने छीन ली है।

रात होते-होते वह थक जाता है, लेकिन अपनी छोटी सी डिब्बी उठाकर घर की ओर निकलता है। घर नहीं, बस एक टूटी-सी झोपड़ी है, जहां उसकी मां बैठी रहती है, आंखों में इंतजार लिए। झोपड़ी में दाखिल होते ही मां उठ खड़ी होती है, पूछती है—”बेटा, आज कितना काम किया?” लड़का अपनी कमाई के कुछ सिक्के मां की हथेली पर रख देता है, “बस इतने ही, मां।” मां सिक्के गिनती है, बेटे के सिर पर हाथ फेरती है—”कोई बात नहीं बेटा, भगवान बड़ा है, एक दिन सब ठीक हो जाएगा।”

लड़का मां की आंखों में देखता है और धीमे स्वर में कहता है—”मां, पापा कब आएंगे?” यह सुनकर मां का चेहरा सख्त हो जाता है, आंखों में आंसू छलक आते हैं, लेकिन बेटे से छुपाने की कोशिश करती है—”पापा बहुत दूर चले गए हैं बेटा, अब वापस नहीं आएंगे।” बच्चा हैरानी से पूछता है—”क्यों मां? सबके पापा तो घर लौटते हैं!” मां बेटे को सीने से लगा लेती है और फूट-फूट कर रोने लगती है। रोते-रोते बेटे के कान में कहती है—”तेरे पापा साधारण इंसान नहीं थे, बेटा। उन्होंने देश के लिए अपनी जान दी है ताकि हम सब सुरक्षित रह सकें।”

बच्चा मासूम आंखों से मां की ओर देखता है—”मतलब पापा हीरो थे?” मां सिर हिलाती है, “हां बेटा, तेरे पापा देश के हीरो थे और तू उनका बेटा है।” लड़का मुस्कुराता है—”तो मां, मैं भी बड़ा होकर पापा जैसा फौजी बनूंगा, मैं भी देश की रक्षा करूंगा।” मां उसे गले से लगा लेती है, लेकिन अंदर ही अंदर सोचती है—काश बेटा, तुझे इतना बड़ा संघर्ष न देखना पड़ता। जिस उम्र में किताबें पकड़नी चाहिए थी, उस उम्र में ब्रश पकड़कर जूते चमका रहा है।

कुछ साल पहले, यही बेटा 6-7 साल का था। उसके पिता कैप्टन अर्जुन सिंह भारतीय सेना में तैनात थे। अर्जुन सिंह बहादुर और देशभक्त सैनिक थे। उनकी आंखों में बस एक सपना था—इस मिट्टी की हिफाजत। छुट्टी पर घर आते तो बेटे को गोद में उठाकर कहते—”बेटा, एक दिन तू भी बड़ा होकर फौजी बनेगा, ताकि तेरी छाती पर भी तिरंगे का बैज चमके।” मां हंस देती थी, लेकिन दिल में डर था—फौजी की जिंदगी आसान नहीं होती।

एक दिन अचानक खबर आई—देश की सीमा पर हमला हो गया है। कैप्टन अर्जुन सिंह की यूनिट को तुरंत बुलाया गया। उन्होंने बिना देर किए बैग पैक किए, पत्नी और बेटे के सामने खड़े होकर बोले—”मुझे जाना होगा, देश को हमारी जरूरत है।” पत्नी की आंखों में आंसू थे—”हर बार यही कह कर जाते हो, लेकिन क्या सोचते हो कि तुम्हारे जाने के बाद हम कैसे जीते हैं?” अर्जुन ने पत्नी के गालों को छुआ—”अगर हम जैसे लोग डर गए तो धरती कैसे बचेगी? तुम्हारा पति सिर्फ तुम्हारा नहीं, पूरे देश का है।” बेटे को उठाया, माथे पर किस करके बोले—”पापा जल्दी लौट आएंगे, तब तक मां का ख्याल रखना।” बच्चा मासूमियत से पूछता—”पापा, आप दुश्मनों को मारोगे ना?” अर्जुन हंस पड़े—”नहीं बेटा, मैं दुश्मनों से लड़ूंगा, ताकि तू और तेरे जैसे हजारों बच्चे सुरक्षित रह सकें।”

सीमा पर कई दिनों तक संघर्ष चला। गोलियों की गड़गड़ाहट, बारूद की गंध, मौत का साया। अर्जुन सिंह डटे रहे, साथियों के साथ दुश्मनों को खदेड़ दिया। लेकिन आखिरी हमले में अर्जुन को गोलियां लगीं। खून से लथपथ होकर भी तिरंगे को गिरने नहीं दिया। आखिरी सांस तक लड़ते रहे। जब गिरे तो होठों पर यही शब्द थे—”जय हिंद।”

देश ने उन्हें शहीद घोषित किया, तिरंगे में लपेटकर पार्थिव देह गांव लाई गई। चारों ओर भारत माता की जय के नारे गूंज उठे। लेकिन उस शोर में एक पत्नी की चीखें और एक छोटे बच्चे की रुलाई दब गई। बच्चा मासूमियत से पूछता—”सब क्यों रो रहे हैं? पापा तो जल्दी लौट कर आने वाले थे ना?” उस दिन के बाद सब कुछ बदल गया। लोग पहले तो ढांढस बंधाने आए, सरकारी वादे हुए, कुछ पैसे मिले, लेकिन वक्त के साथ सब भूल गए। पत्नी और बेटे को अकेले ही जिंदगी का बोझ उठाना पड़ा। मां को घर-घर काम करना पड़ा, लेकिन वह काफी नहीं था। धीरे-धीरे बेटा भी मजबूर हो गया और बस अड्डे पर जूते पॉलिश करने बैठ गया।

फिर भी उस मासूम बच्चे का सपना टूटा नहीं। हर शाम मां से कहता—”मां, जब मैं बड़ा हो जाऊंगा तो पापा जैसा फौजी बनूंगा। मैं भी तिरंगे की कसम खाऊंगा।” मां उसे सीने से लगाकर रो पड़ती, क्योंकि वह जानती थी कि बेटे का बचपन अब बीतेगा नहीं, वह वक्त से पहले जवान हो चुका है।

अगले दिन सुबह के अंधेरे में, बस अड्डे पर हल्की रोशनी फैलती थी। ठंडी हवा में वह नन्हा सा लड़का जमीन पर बैठा जूते पॉलिश करता। उसकी आंखों में नींद होती मगर मजबूरी उसे दिन शुरू करवा देती। वह जिन जूतों को चमकाता, उनके मालिक शायद उसके पिता जैसे शहीद जवानों की कुर्बानी को याद भी न करते। उसके छोटे-छोटे हाथों से जब ब्रश फिसलता, लोग हंसते—”अबे नन्हे, ठीक से कर, वरना पैसे नहीं दूंगा।” कभी कोई दयालु यात्री उसके सिर पर हाथ फेर देता, तो कुछ लोग उसे ऐसे देखते जैसे वह गलियों में जीने के लिए ही पैदा हुआ हो।

दिन-ब-दिन उसका संघर्ष गहरा होता जा रहा था। उसके भीतर एक टीस थी—”क्यों मेरा बचपन ऐसे बीत रहा है? क्यों मुझे ही यह दिन देखने पड़े?” मगर हर बार मां का चेहरा उसकी हिम्मत जोड़ देता—”अगर मैं टूट गया तो मां भी टूट जाएगी।”

लोग ताने देते—”अरे छोटू, तेरे जैसे तो करोड़ों हैं इस दुनिया में, किसी काम के नहीं।” कभी-कभी लोग अपने बच्चों की ओर इशारा करके कहते—”पढ़ लिखो, वरना इसका हाल देख लो।” यह सुनकर उसका दिल कांप जाता, जैसे उसकी गरीबी और मजबूरी तमाशा बन गई हो। फिर भी वह चुप रहता, उसके पास जवाब नहीं था, सिर्फ संघर्ष और सपनों से भरा दिल था।

एक दिन बस अड्डा भीड़ से भरा था। लड़का हमेशा की तरह काम में लगा था कि तभी एक बूढ़ा आदमी आया। उसने लड़के को ध्यान से देखा, चेहरे पर हैरानी थी। बूढ़े ने धीरे से कहा—”तू… तू कैप्टन अर्जुन सिंह का बेटा है ना?” लड़के के हाथ थम गए, दिल की धड़कन तेज हो गई, आंखें भर आईं। “हां, मैं वही हूं, मेरे पापा बॉर्डर पर शहीद हो गए थे।” बस अड्डे पर सन्नाटा छा गया। लोग जो अभी तक उस पर हंस रहे थे, अब बड़ी-बड़ी आंखों से देखने लगे। अचानक उन्हें अपनी गलती का एहसास हुआ।

बूढ़े ने लड़के का कंधा पकड़ा—”बेटा, तेरा बाप इस मिट्टी का सच्चा हीरो था और आज तू जूते चमका रहा है। यह तो तेरे पिता की कुर्बानी का अपमान है।” लड़के की आंखों से आंसू बह निकले। पहली बार महसूस हुआ कि उसकी कहानी सिर्फ उसकी नहीं, उसके पिता की भी थी और इस देश की भी।

बस अड्डे का माहौल बदल गया। लोग जो अब तक उसे सिर्फ जूते पॉलिश करने वाला बच्चा समझते थे, अब झुक कर देखने लगे। आज उन्हें पता चला था कि वह किसी आम बच्चे का बेटा नहीं, बल्कि उस शहीद का बेटा है जिसने देश की रक्षा के लिए अपनी जान दी थी।

वह बूढ़ा आदमी रिटायर्ड फौजी अफसर था। उसकी आंखों में नमी थी। उसने लड़के का हाथ थामा—”बेटा, तू इस हालत में नहीं रह सकता। तेरे पिता ने सरहद पर हमारी नींदें सुरक्षित रखने के लिए अपनी नींदें खो दी और तू जूतों की धूल झाड़ रहा है।” वह उसे अपने साथ ले गया, साफ कपड़े दिलाए, गर्म खाना खिलाया। पहली बार उस बच्चे को लगा जैसे कोई अपना मिला हो।

बूढ़े ने अधिकारियों से बात की—”यह कैसी नाइंसाफी है? एक शहीद का बेटा सड़क पर जूते पॉलिश कर रहा है। सरकार का फर्ज कहां गया?” धीरे-धीरे यह बात पूरे शहर में फैल गई। लोग उसकी मदद के लिए आगे आने लगे—कोई किताबें लाया, कोई स्कूल में दाखिला दिलाने की कोशिश करने लगा, कुछ लोग रोज खाने-पीने का सामान देने लगे। बस अड्डे पर जो लोग ताने मारते थे, अब वही लोग शर्म से सिर झुका लेते।

लड़के की मां के आंसू आज पहली बार खुशी में बह रहे थे। वह बेटे को गले लगाकर बोली—”बेटा, तेरे पापा आज जहां भी होंगे, तुझे देखकर जरूर गर्व कर रहे होंगे।” लड़के की आंखों में चमक लौट आई। अब वह बस अड्डे का जूते पॉलिश करने वाला बच्चा नहीं था, वह शहीद का बेटा था, जिसकी कहानी ने पूरे समाज को जगाया।

अब उसके भीतर एक सपना पलने लगा—वह भी अपने पापा की तरह वर्दी पहनना चाहता था, देश की सेवा करना चाहता था। बूढ़े फौजी अफसर ने उसके लिए पास के स्कूल में दाखिला करवाया। कक्षा में पहली बार बैठा, तो लगा जैसे किसी और दुनिया में आ गया हो। कागज, पेंसिल, किताबें उसके लिए सपने जैसे थे। कभी बस अड्डे पर जूते चमकाने वाला बच्चा आज अक्षरों की चमक में डूबा था।

रास्ता आसान नहीं था, गरीबी अब भी थी, मां बीमार रहती थी। कभी खाने के पैसे पूरे नहीं होते, कभी स्कूल की फीस का इंतजाम मुश्किल हो जाता। मगर वह हार नहीं मानता, दिन-रात पढ़ाई करता, सड़क के बल्ब की रोशनी में कॉपियां भरता और हमेशा दिल में दोहराता—”मुझे पापा जैसा बनना है।”

कक्षा में कई बार उसके कपड़ों को देखकर बच्चे हंसते—”यह तो जूते पॉलिश करने वाला है। शहीद का बेटा होकर भी इतना गरीब!” हर ताना उसके दिल को चीर देता, लेकिन वह मुस्कुरा देता—”पापा भी तो बॉर्डर पर ताने सहते होंगे, गोलियों के ताने, मौत के ताने, फिर भी डटे रहते थे। तो मैं क्यों हार मानूं?” उसके भीतर का हौसला हर बार और मजबूत हो जाता।

धीरे-धीरे लड़का पढ़ाई में सबको पीछे छोड़ने लगा। उसकी आंखों में जलती आग और दिल में भरा जुनून उसे दूसरों से अलग बनाता था। टीचर कहते—”यह बच्चा एक दिन बहुत बड़ा काम करेगा।” स्कूल की परेड में सबसे आगे खड़ा होता, वर्दी पहनकर मार्च करता तो आंखों में अपने पापा की झलक दिखाई देती।

जैसे-जैसे बड़ा होने लगा, जिम्मेदारियां बढ़ीं, मां की तबीयत और बिगड़ गई। पढ़ाई के साथ घर का खर्च भी चलाना पड़ता। कभी अखबार बेचता, कभी छोटे-मोटे काम करता, लेकिन किताबें हाथ से नहीं छोड़ता। रात को थक कर गिर पड़ता, पापा की तस्वीर उठाकर देखता—”बस थोड़ी हिम्मत और, पापा, मैं आपका सपना पूरा करूंगा।”

समय बीतता गया, लड़का किशोर हो चुका था। मेहनत रंग लाने लगी, आर्मी स्कूल में दाखिला हो गया। वह दिन मां की आंखों में सालों बाद सबसे बड़ी खुशी लेकर आया। मां ने बेटे को गले लगाया—”बेटा, आज तेरे पापा का सपना सच होते देख रही हूं।” लड़के ने आकाश की ओर देखा, जैसे अपने शहीद पिता को वादा कर रहा हो—”पापा, अब आपकी वर्दी मैं पहनूंगा।”

अब उसका सफर जूतों की धूल से उठकर देश की मिट्टी को सींचने तक पहुंचने वाला था। आर्मी स्कूल में दाखिला हो चुका था, अब शुरू हुई वह राह जहां हर दिन पसीना, थकान और कठिनाइयां उसका इंतजार करती थीं। सुबह 4 बजे की परेड, दोपहर की कड़ी धूप में दौड़, रात को हथियारों की ट्रेनिंग—यह सब आम बच्चे के लिए असंभव था, लेकिन उस शहीद के बेटे के लिए यह उसकी जिंदगी का हिस्सा था।

हर बार जब शरीर थक कर गिरना चाहता, पैर कांपते, आंखें नम होतीं, वह पिता की तस्वीर याद करता—”बेटा, हार मत मानना, सैनिक का खून तेरी रगों में बहता है।” साथी पूछते—”तू इतना सब कैसे सह लेता है?” लड़का मुस्कुरा देता—”मेरे पापा ने सरहद पर मौत को हरा दिया था, मैं थकान से क्यों हार मानूं?”

हर बार गिरकर उठना, दर्द को छुपाकर आगे बढ़ना उसकी आदत बन गई। पिता की याद ही उसकी सबसे बड़ी ताकत थी। कई सालों की मेहनत और संघर्ष के बाद वह दिन आखिर आ ही गया। परिवार, दोस्त, गांव के लोग सब मौजूद थे। परेड ग्राउंड पर बिगुल बजा, पहली बार उसने आर्मी की वर्दी पहनी। मां की आंखें आंसुओं से भर आईं। भीड़ में खड़े बूढ़े फौजी अफसर ने हाथ जोड़ दिए। सबकी निगाहें उस पर थीं। वह बच्चा जो कभी बस अड्डे पर जूते पॉलिश करता था, आज देश की वर्दी में खड़ा था।

वह मंच पर गया, मां के पास आया, उनके पैरों को छूकर बोला—”मां, आज मैंने पापा का सपना पूरा कर दिया।” मां ने बेटे को सीने से लगाकर कहा—”बेटा, आज तू सिर्फ मेरा ही नहीं, पूरे देश का बेटा बन गया है।” उसने आकाश की ओर देखा, जैसे अपने शहीद पिता से कह रहा हो—”पापा, अब आपकी वर्दी मैंने पहन ली है, अब आपकी लड़ाई मैं लडूंगा।”

और फिर बिगुल की गूंज में वह वर्दी में सीना तान कर खड़ा हो गया। आंखों में आंसू थे, लेकिन दिल गर्व से भरा था। उसकी जिंदगी का सफर पूरा हो चुका था—जूते की धूल से उठकर देश की मिट्टी को सींचने तक।

तो दोस्तों, कमेंट में “जय हिंद” जरूर लिखना, और आप यह कहानी कहां से पढ़ रहे हैं, यह भी बताना।
मिलते हैं अगली कहानी में।
**जय हिंद!**