थाने में रिपोर्ट लिखाने पहुँचे बुजुर्ग को गाली देकर भगा दिया… लेकिन जैसे ही उन्होंने

पूरा लंबा हिंदी कहानी: “असली ताकत”

शाम धीरे-धीरे उतर रही थी। थाना परिसर के बाहर चाय की ठेलियों से उठती भाप और अदरक की तीखी खुशबू हवा में घुली हुई थी। बरामदे में अलमारी सी लंबी कतार थी, दीवारों पर धूल जमी सूचनाएं थीं, एक कोने में टिमटिमाती ट्यूबलाइट थी और बीच-बीच में सायरन की तेज चीख सुनाई देती थी। ये सब मिलकर उस जगह का रोज का शोर रच रहे थे।

इसी भीड़ में एक बुजुर्ग धीरे-धीरे चलते हुए मुख्य दरवाजे से अंदर आए। उनकी उम्र सत्तर के पार थी, माथे पर पसीने की बारीक परत थी, कंधे पर समय का वृत्ताकार बोझ था। सफेद साधारण धोती-कुर्ता, पैरों में घिसी चप्पलें और बाई भुजा के सहारे दबा हुआ पुरानी फाइलों का पतला पुलिंदा था, जिसे वे हथेली से बार-बार थपथपाकर सीधा करते जा रहे थे। मानो कागजों में ही उनकी आखिरी उम्मीद बंद हो।

काउंटर के पास काजल की मोटी लकीर लगाए एक सिपाही रजिस्टर पर नाम दर्ज कर रहा था। बुजुर्ग वहीं रुक कर बोले, आवाज थकी जरूर थी पर साफ और सीधी थी।
“बाबूजी, एक रिपोर्ट दर्ज करवानी है।”
सिपाही ने ऊपर-नीचे देखा। कपड़े, चप्पल, झोला—सबका हिसाब एक नजर में लगा लिया। होठ तिरछे हुए। हंसी बिना साथियों के भीड़ ढूंढ लेती है। सो उसने बगल वाले सिपाही को ठोका—
“अरे सुन, ददा रिपोर्ट लिखवाने आए हैं। पहले चाय पिला दें कि सीधे थानेदार से मिलवा दें?”
पास खड़े दो-तीन लोग मुस्कुराए। किसी ने दबी आवाज में कहा, “अब हर कोई थाना ड्रामा के लिए ही आता है।”

बुजुर्ग ने फाइल से एक मुड़ा हुआ कागज निकाला, आगे बढ़ाया।
“बेटा, मामला छोटा नहीं है। सुन लो बस दो मिनट।”
दूसरे सिपाही ने कागज हाथ में लेने के बजाय उसकी तरफ हाथ से हां सीधी—
“चलो चलो, लाइन बनाओ, काम है, फालतू टाइम नहीं है।”

भीतर बैठे ड्यूटी ऑफिसर मोटा सा रजिस्टर पलटते, मोबाइल पर किसी से हंसते हुए बात कर रहे थे। ने शोर सुनकर चेहरा उठाया—
“क्यों भीड़ लगा रखी है? क्या चाहिए?”
“रिपोर्ट लिखनी है साहब।”
“किस बात की?”
बुजुर्ग ने फाइल की जिल्द पर अंगुली फेरते हुए धीमे से कहा—
“एक शिकायत पहले भी दी थी, अब फिर वही हुआ है।”
ड्यूटी ऑफिसर ने बीच में ही हाथ हिलाकर रोका—
“देखो बाबा, यहां रोने-धोने का टाइम नहीं। अगर कोई झगड़ा-लड़ाई है तो पंचायत जाओ। चोरी-वोरी है तो पहले पड़ोसियों से पूछो। हर बात थाने में नहीं होती।”

काउंटर के पीछे बैठे सिपाही के चेहरे पर अब खुली खिल्ली थी।
“बुजुर्गों का नया शौक। फ्री चाय और हेडलाइन।”
बुजुर्ग ने एक पल के लिए आंखें बंद की। चेहरे पर कोई गुस्सा नहीं, बस अजीब सी चुप्पी जैसे किसी ने दिल के भीतर से एक धागा खींच दिया हो और वे टूटने से पहले खुद को संभाल रहे हों।

उन्होंने फिर कोशिश की—
“बेटा, दो मिनट सुन लो। यह कागज…”
ड्यूटी ऑफिसर की टोन भारी और रूखी हो गई—
“सुनाई नहीं देता क्या? यहां नाटक नहीं चलेगा। गार्ड!”

दरवाजे के पास खड़े होमगार्ड ने झट से कदम बढ़ाए। भीड़ का शोर एकदम हल्का पड़ा। कतार में खड़े लोग गर्दन लंबी करके तमाशा देखने लगे। कुछ चेहरों पर दया जैसी कोई चीज आई और फौरन लौट गई।

होमगार्ड बुजुर्ग के कंधे से लगा—
“चलिए बाहर, बेटा कंधे से मत बोला ना, बाहर।”

एक हल्की सी धक्कामुक्की। फाइल की जिल्द खुली। दो-तीन कागज जमीन पर फिसलते चले गए। कागजों पर पुराने हस्ताक्षर, सील की धुंधली गोलाई और तारीखों की कतारें—जिन्हें कोई पढ़ना नहीं चाहता था।

भीतर बैठे इंतजार कर रहे एक युवा ने फुसफुसाकर कहा—
“अगर पुलिस नहीं सुन रही, पक्का मामला बेकार होगा।”
दूसरे ने हंस पड़ी—
“या फिर वैसे ही ध्यान चाहिए।”

बुजुर्ग धीरे से झुके, कागज समेटे, जिल्द के भीतर फिर से उन्हें करीने से दबाया। हथेली से फाइल के ढक्कन को यूं थपथपाया जैसे किसी बच्चे की पीठ सहला रहे हों। शांत। उनकी आंखें अब बिल्कुल स्थिर थीं। उन्होंने गर्दन उठाई। ड्यूटी ऑफिसर कागजात में सिर दिए बैठा था जैसे कुछ हुआ ही ना हो। काउंटर का सिपाही मुस्कान से खाली कप पर उंगली से ठक कर रहा था।

बुजुर्ग ने अपनी धोती का पल्ला ठीक किया। थैला कंधे पर टांगा और दरवाजे की छाया में खड़े होकर पुराना फीचर फोन निकाला। वही पेंट की जेब में सालों से वफादारी निभाता हुआ छोटा सा यंत्र। अंगूठा आदतन एक नंबर पर टिक गया। कॉल लगी। उन्होंने एक ही वाक्य कहा, आवाज में ना ऊंचाई ना शिकायत, बस एक धातु सी सख्ती थी—
“फिर वही हुआ।”

फोन बंद कर वे चुपचाप खड़े रहे। उनकी पीठ सीधी हो गई थी जैसे किसी अदृश्य सहारे ने उन्हें थाम लिया हो। बरामदे में आते-जाते कदमों की रफ्तार वही थी किंतु थाने की हवा में मानो अदृश्य हलचल दौड़ गई।

दरवाजे के बाहर सड़क पर दूर से सायरन की पतली रेखा उभरनी शुरू हुई। पहले धीमी, फिर तेज। पहले एक, फिर कई। बरामदे में खड़ी धूल सेहरकर जैसे बैठ गई। काउंटर पर ठक करता सिपाही ठिटक गया। ड्यूटी ऑफिसर ने गर्दन उठाई। भौहे अपने आप छड़ी। कतार में खड़े लोग एक दूसरे का चेहरा पढ़ने लगे—
“क्या हुआ? इतने सायरन? किसकी रेड है?”

बुजुर्ग ने फाइल को बाह से और कस लिया। उनकी आंखों में अब कोई थकान नहीं थी, सिर्फ एक निर्णय की शांति। थाने के फाटक के बाहर काली-काली एसयूवी एक के पीछे एक ब्रेक लगाती हुई आकर रुकी। नीली लाल फ्लैशर की चमक दीवारों पर नाच उठी। एक साथ कई दरवाजे खुले। चमकदार पीतल के बैज, सजीव वर्दियां और कदमों का अनुशासित शोर।

बरामदे में किसी ने अनायास बुदबुदाया—
“यह कमिश्नर साहब…”

बुजुर्ग वहीं खड़े रहे, भीतरी शांत झील की तरह। इस बार उन्हें धक्का देने के लिए कोई आगे नहीं बढ़ा। सबकी नजर उसी एक आदमी पर टिक गई थी जिसे अभी कुछ मिनट पहले बेकार, पागल, फुर्सती कहकर बाहर किया गया था और जो अब बिना आवाज ऊंची के थाने की हवा बदल चुका था।

थाने का बरामदा अब वही नहीं था। कुछ मिनट पहले तक जहां हंसी, ताने और चाय की प्याली की खनक गूंज रही थी, वहां अब सन्नाटा छाया हुआ था। दरवाजे के बाहर खड़ी काली एसयूवी की कतार और उनकी छत पर घूमती लाल-नीली बत्तियां सबकी धड़कनें बढ़ा रही थी।

पहली गाड़ी से उतरे पुलिस कमिश्नर। कद लंबा, वर्दी की धार इतनी तेज कि धूप भी उसमें चमक उठी। उनके साथ शहर के नामी अफसर थे। जैसे ही वे अंदर आए, सबकी नजरें अपने आप उस बुजुर्ग की ओर मुड़ गई जो कोने में खड़ा, अब भी फाइल को सीने से लगाए हुए था।

कमिश्नर ने कदम बढ़ाए और बिना रुके सीधे बुजुर्ग के सामने जाकर खड़े हो गए। एक पल को सन्नाटा और गहरा हो गया। फिर उन्होंने सलाम ठोका—
“सर, आपने पहले बताया क्यों नहीं?”

बरामदे में खड़े सिपाही, हवलदार और वह ड्यूटी ऑफिसर—सबके चेहरे का रंग उड़ गया। अभी जिस आदमी को बेकार कहकर बाहर धकेला गया था, वही अब कमिश्नर के सलाम का हकदार था।

बुजुर्ग ने शांत स्वर में कहा—
“हर बार बताना जरूरी नहीं होता। कभी-कभी देखना चाहिए कि जमीन पर लोग कैसे बर्ताव करते हैं।”

उनकी आवाज धीमी थी, लेकिन असर ऐसा कि पूरा थाना सिर झुका कर खड़ा रह गया। भीड़ में खड़े लोग अब कान्हा फूंसी करने लगे—
“यह वही है। रिटायर्ड डीजीपी साहब। इनके नाम पर तो कई मेडल बने हैं।”

ड्यूटी ऑफिसर के होंठ सूख गए। उसने पास खड़े हवलदार को देखा। दोनों की आंखें जैसे पूछ रही थी—
“हमने क्या कर दिया?”

कमिश्नर ने गुस्से से कहा—
“कौन था जिसने इन्हें धक्का दिया? किसने आवाज उठाई?”

काउंटर पर बैठा सिपाही अब कांप रहा था। होमगार्ड जिसने कंधे से धकेला था, पसीने में भीग गया। भीड़ में से किसी ने फुसफुसाकर कहा—
“अभी तो यह बुजुर्ग चुप थे। अब देखना पूरी ड्यूटी उलट जाएगी।”

बुजुर्ग ने हाथ उठाया—
“नहीं, बदला लेने नहीं आया। मैं तो बस यह दिखाना चाहता था कि पुलिस की असली ताकत वर्दी में नहीं, व्यवहार में है। अगर एक बूढ़ा आदमी यहां इंसाफ नहीं पा सकता तो आम जनता का क्या हाल होगा?”

उनकी बातें सुनकर थाने के बरामदे में खड़े लोगों की आंखें झुक गई। उधर कमिश्नर ने तुरंत आदेश दिया—
“सब अफसर मीटिंग हॉल में इकट्ठे हो। यह मामला यहीं खत्म नहीं होगा।”

भीड़ अब समझ गई थी, कुछ बड़ा होने वाला है। बुजुर्ग धीरे-धीरे चलते हुए मीटिंग हॉल की ओर बढ़े। वही फाइल अब उनके हाथ में नहीं, बल्कि उनकी गरिमा का प्रतीक बन चुकी थी। पीछे-पीछे कमिश्नर, इंस्पेक्टर और बाकी अफसर थे। जिन कांस्टेबल्स ने अभी उन्हें धक्का दिया था, वे सिर झुकाकर सन्न खड़े थे।

रास्ते में खड़े एक बूढ़े फरियादी ने झुककर उनके पैर छू लिए—
“साहब, हमें नहीं पता था कि आप… आप तो हमारे लिए भगवान जैसे हैं।”

बुजुर्ग ने बस कंधे पर हाथ रखा और कहा—
“भगवान मत कहो, इंसानियत कहो।”

जैसे-जैसे वे आगे बढ़ रहे थे, हर कदम पर भीड़ के चेहरे बदल रहे थे। कुछ देर पहले जो लोग तमाशा देख रहे थे, अब उनकी आंखों में गिल्ट उतर आया था।

मीटिंग हॉल का दरवाजा खुला। लंबे टेबल पर अफसर कतार से खड़े हो गए। बुजुर्ग बीच में कुर्सी पर बैठ गए। उनकी आंखें स्थिर थी। अब वह किसी फाइल में नहीं बल्कि पूरे तंत्र की नब्ज़ में झांक रहे थे।

कमिश्नर ने ऊंची आवाज में कहा—
“आज से इस थाने का हर नियम बदलने वाला है। कोई भी शिकायत लाने वाला गरीब हो या अमीर, उसे इंसाफ मिलेगा और जो अपमान करेगा उसे नौकरी से हाथ धोना पड़ेगा।”

थाने की हवा में डर, सम्मान और अपराध बोध तीनों एक साथ तैर रहे थे। बुजुर्ग ने आखिरी बार देखा—सिपाही, होमगार्ड और ड्यूटी ऑफिसर तीनों पसीने में लथपथ थे। लेकिन उनकी आंखों में अभी भी एक सीख बाकी थी।

उन्होंने धीमे स्वर में कहा—
“कल तक मैं तुम्हारा वरिष्ठ था। आज मैं एक आम नागरिक बनकर आया और तुम गिर गए। इंसान की असली परीक्षा यही होती है। जब कोई तुम्हें पहचानता ना हो तब भी तुम सही करो।”

उनकी आवाज में इतनी गहराई थी कि कमरे का हर कोना सन्न रह गया और तभी बाहर से दोबारा सायरन की गूंज सुनाई दी। मानो पूरी व्यवस्था अब एक नए मोड़ पर पहुंच चुकी थी।

मीटिंग हॉल के दरवाजे बंद हो चुके थे। अंदर बैठे हर अधिकारी की सांसे तेज चल रही थी। जिन कांस्टेबल्स ने कुछ देर पहले तक उस बुजुर्ग का मजाक उड़ाया था, उनकी निगाहें अब फर्श पर गड़ी हुई थी।

बुजुर्ग धीरे से उठे। उनकी उम्र भले ही 70 पार थी, लेकिन चाल-ढाल में अब वही पुराना पुलिसिया रब झलक रहा था। उन्होंने अपने बैग से कुछ पुराने फाइल निकाले और टेबल पर रख दिए—
“यह देखो…”
उनकी आवाज धीमी लेकिन ठहरी हुई थी—
“यह वह आदेश है जिनके तहत मैंने इस शहर की पहली पुलिस रिफॉर्म शुरू की थी। यह वह दस्तखत है जो आज भी मंत्रालय की फाइलों में दर्ज है।”

कमरे में खामोशी गहराती चली गई। अफसर एक दूसरे की तरफ देखने लगे। कमिश्नर ने खड़े होकर कहा—
“यह वही हैं जिन्होंने हमें ट्रेनिंग दी थी। सर, आपके ही नाम से हमने सीखा था कि पुलिस जनता की ढाल है, तलवार नहीं।”

सभी अफसरों ने एक साथ झुककर सलाम किया। वहीं कोने में खड़ा ड्यूटी ऑफिसर पसीने में भीग गया। उसकी आंखों के सामने अब वह दृश्य घूम रहा था—कैसे उसने उसी आदमी को गाली देकर धक्के मारकर बाहर फेंका था।

बुजुर्ग ने उसकी ओर देखा। उनकी नजर इतनी गहरी थी कि ऑफिसर कांप उठा।
“याद रखो बेटा, वर्दी सिर्फ तन पर होती है। असली पुलिस इंसान के मन में होती है। अगर दिल में इंसानियत नहीं तो वर्दी सिर्फ कपड़ा रह जाती है।”

कमिश्नर ने तुरंत आदेश दिया—
“ड्यूटी ऑफिसर और दोनों कांस्टेबल्स को सस्पेंड किया जाए। इनके खिलाफ विभागीय कारवाई होगी।”

बात सुनकर पूरा हॉल हिल गया। लेकिन बुजुर्ग ने हाथ उठाकर कहा—
“सजा से पहले सीख देना जरूरी है। मैं चाहता हूं ये लोग एक महीने तक शिकायत काउंटर पर सिर्फ गरीब और बुजुर्ग फरियादियों की सेवा करें। तब इन्हें समझ आएगा कि इंसाफ कैसा लगता है।”

कमिश्नर ने उनकी बात मान ली। भीड़ में बैठे कुछ फरियादी जो यह नजारा देख रहे थे, उनकी आंखों में आंसू थे। एक महिला ने फुसफुसा कर कहा—
“आज पहली बार लगा कि पुलिस सच में हमारी है…”

समाप्त