बकरियां चराते हुए एक लड़की रास्ता भटक गई और भारतीय सीमा पार कर गई। फिर सेना के जवानों ने…
देहरादून के एक शांत और मध्यमवर्गीय मोहल्ले में शर्मा परिवार को हमेशा एक आदर्श के रूप में देखा जाता था। पति अर्जुन शर्मा एक सिविल इंजीनियर थे और एक बड़े ठेकेदार के लिए काम करते थे। पत्नी नेहा एक स्थानीय ब्यूटी सैलून में काम करती थी। दोनों छोटे बच्चों के साथ उनका जीवन बाहर से बेहद सामान्य और सुखी दिखाई देता था। हर सुबह बच्चे नीली वर्दी पहनकर स्कूल जाते, मोहल्ले के लोग कहते – “देखो, यह घर तो मंदिर की तस्वीर जैसा है।”
लेकिन यह तस्वीर ज्यादा दिनों तक कायम न रह सकी। एक ठंडी सुबह खबर आई कि पूरा शर्मा परिवार हिमालय की पहाड़ियों में पिकनिक पर जाने के बाद अचानक लापता हो गया है। उनकी एसयूवी नाग टिब्बा ट्रेल के पास खड़ी मिली, गाड़ी का दरवाज़ा आधा खुला था, लेकिन सामान सही-सलामत था। न अर्जुन, न नेहा, और न ही बच्चे कहीं दिखाई दिए। पूरे मोहल्ले में सन्नाटा छा गया, पुलिस ने तुरंत जाँच शुरू कर दी और मीडिया ने इस गुमशुदगी को सुर्खियों में ला दिया।
जाँच के दौरान एक अजीब बात सामने आई – वहाँ संघर्ष के कोई निशान नहीं थे। न पैरों के निशान, न ही जानवरों के हमले का कोई सबूत। ऐसा लग रहा था जैसे पूरा परिवार हवा में गायब हो गया हो। अफ़वाहें फैलने लगीं – कोई कहता जंगली जानवर ले गए, कोई कहता आत्मा का खेल है। मगर पुलिस ने साफ़ कहा – “यह सिर्फ़ गुमशुदगी का मामला नहीं है।”
इस बीच, पुलिस ने नेहा की आखिरी तस्वीर देखी, जो राजपुर रोड पर एक दुकान के बाहर सीसीटीवी कैमरे में कैद हुई थी। उसकी आँखों में अजीब उदासी थी, होंठ भींचे हुए थे, मानो वह अंदर ही अंदर कोई बड़ा फैसला कर चुकी हो।
असलियत यह थी कि बाहर से देखने में जितना खूबसूरत परिवार लगता था, अंदर उतना ही दबाव और टूटन बढ़ चुकी थी। अर्जुन रोज़ ओवरटाइम करता था ताकि अपार्टमेंट का किराया और बच्चों की पढ़ाई चल सके। नेहा सैलून में घंटों खड़ी रहती, हाथों पर रसायनों के दाग पड़ गए थे। दोनों के बीच बहसें बढ़ने लगीं।
एक रात नेहा ने अर्जुन से कहा –
“मैं क्या कर रही हूँ इस शहर में? बस मशीन बन गई हूँ।”
अर्जुन ने ठंडी आवाज़ में जवाब दिया –
“कम से कम यहाँ बच्चों का भविष्य तो है।”
धीरे-धीरे यह दरार गहरी खाई में बदल गई। मोहल्ले वाले उन्हें अब भी आदर्श परिवार मानते थे, मगर अंदर से रिश्ता टूट चुका था।
यही वह समय था जब नेहा की मुलाकात सैलून के एक ग्राहक राहुल खन्ना से हुई। वह आकर्षक था, बातें मीठी करता था और नेहा को सुनता था। धीरे-धीरे उनकी नज़दीकियाँ बढ़ीं। गुप्त मुलाकातें, छुपे हुए संदेश – नेहा को लगने लगा कि अर्जुन उसकी ज़िंदगी की सबसे बड़ी रुकावट है। एक दिन उसने सोचा – “अगर अर्जुन और बच्चे न होते, तो मेरी ज़िंदगी कुछ और होती।”
फिर आई वह सर्दियों की सुबह। अर्जुन ने पिकनिक का प्रस्ताव रखा। नेहा ने मुस्कराकर हामी भर दी, लेकिन यह पिकनिक उसके मन में छिपी एक भयावह योजना का हिस्सा थी।
गुमशुदगी की रिपोर्ट दर्ज हुए दो हफ्ते हुए थे जब पुलिस को नाग टिब्बा ट्रेल से दूर एक खड्ड में अर्जुन और दोनों बच्चों की लाशें मिलीं। मौत बेहद दर्दनाक थी, लेकिन जंगली जानवरों के कोई निशान नहीं थे। साफ़ था कि यह हत्या थी।
देहरादून सदमे में था। लेकिन तभी नेहा अचानक नज़र आई – राहुल के सर्विस्ड अपार्टमेंट से निकलती हुई। पुलिस ने उसे तुरंत हिरासत में ले लिया। उसके बयान बार-बार बदल रहे थे – कभी कहती रास्ता भटक गई थी, कभी कहती किसी अजनबी ने हमला किया। लेकिन फोन रिकॉर्ड, लोकेशन डेटा और सीसीटीवी ने सब राज़ खोल दिया।
जिस औरत को लोग मेहनती और सौम्य कहते थे, वही अपने पति और बच्चों की हत्यारी निकली। नेहा ने राहुल के साथ मिलकर यह पूरा खेल रचा था। उसने पिकनिक का झांसा देकर अर्जुन और बच्चों को मौत के घाट उतार दिया। उसका सपना था शादी के बंधन से आज़ादी, मगर मिली सिर्फ़ जेल की सलाखें।
जब यह खबर अख़बारों और टीवी पर छपी, पूरा शहर हैरान रह गया। पड़ोसी कहते – “नेहा? वही नेहा? हमने कभी सोचा भी नहीं था।” मोहल्ले में मातम था, सबकी नज़रें उन मासूम बच्चों और उनके बाप पर थीं, जिनकी ज़िंदगी विश्वासघात की बलि चढ़ गई।
यह कहानी यहीं खत्म होती है – एक कड़वे सबक के साथ। रिश्तों में आई दरार, रोज़गार का दबाव, और बाहर से चमकती ज़िंदगी – सब मिलकर इंसान को अंधकार की ओर धकेल सकते हैं। लेकिन विश्वासघात का नतीजा सिर्फ़ टूटा हुआ परिवार नहीं होता, बल्कि एक ऐसा अपराध भी होता है जो पूरी समुदाय की आत्मा को झकझोर देता है।
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मेरे जीवन की शुरुआत बहुत साधारण थी। पढ़ाई ख़त्म करने के बाद मैं एक निर्माण कंपनी में काम करने लगा। शुरू-शुरू में मेरा काम सिर्फ़ मजदूरों और कर्मचारियों की टीम का प्रबंधन करना था। धीरे-धीरे मुझे काम की आदत हो गई, और जब लोगों से अच्छे रिश्ते बन गए तो मैंने हिम्मत जुटाई और अलग होकर अपनी एक छोटी सी कंपनी खड़ी कर दी। मेरी कंपनी देहरादून में थी, लेकिन काम पूरे उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश में मिलता था। इसलिए मैं हमेशा यात्रा करता रहता था। जब भी घर लौटता, मेरी पत्नी सुनीता अपने चेहरे पर वही संतोष और अपनापन लिए मेरा इंतज़ार करती। उसने तीन बच्चों—दो बेटे और एक बेटी—को जन्म दिया। मैंने उससे कहा कि अब खेती-बाड़ी छोड़कर सिर्फ़ बच्चों और घर पर ध्यान दे। आर्थिक बोझ मैं उठा लूँगा। सुनीता ने मेरी बात मान ली।
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