ढाबा मालिक ने सैनिकों से खाने के पैसे नहीं लिए, जब सेना की गाड़ी दोबारा आई…
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बलवंत सिंह: देशभक्ति की मिसाल
देशभक्ति केवल सरहदों पर बंदूक उठाने का नाम नहीं है। यह उस गरीब के दिल में भी जलती है, जो अपने दो वक्त की रोटी में से कुछ हिस्सा देश के जवानों के लिए समर्पित करता है। यह कहानी है बलवंत सिंह की, जो एक छोटे से ढाबे के मालिक थे और जिनका दिल देशभक्ति की आग से तपता था।
बलवंत सिंह पंजाब के एक छोटे से कस्बे में रहते थे। उनका ढाबा पठानकोट से जम्मू जाने वाले नेशनल हाईवे पर था, एक साधारण सा ढाबा जिसका नाम था “शेर ए पंजाब फौजी ढाबा”। यह कोई आलीशान रेस्टोरेंट नहीं था, पर यहाँ का खाना घर जैसा स्वाद रखता था। बलवंत सिंह के चेहरे पर उम्र के निशान थे, पर उनकी आंखों में उस फौजी की चमक थी जो अपने देश के लिए कुछ करने को तत्पर रहता है।
उनका बेटा विक्रम सिंह भारतीय सेना में कैप्टन था। चार साल पहले कश्मीर में आतंकवादियों से लड़ते हुए विक्रम शहीद हो गया था। उसकी पत्नी भी उस हादसे में चल बसी थी और पीछे एक पांच साल की बेटी प्रिया छोड़ गई। बलवंत सिंह के लिए प्रिया ही उनकी दुनिया थी, उनका सब कुछ। वे चाहते थे कि प्रिया पढ़-लिखकर डॉक्टर बने और देश की सेवा करे।
बलवंत सिंह दिन-रात मेहनत करते थे ताकि प्रिया का भविष्य सुरक्षित हो। उनका ढाबा ज्यादा बड़ा नहीं था, लेकिन वह हमेशा साफ-सुथरा और खाने में बेहतरीन था। अगस्त की एक गर्म दोपहर को जब बलवंत सिंह रोटियां सेक रहे थे, तभी उनके ढाबे के सामने सेना के कई जवान आ गए। वे थके-मांदे, धूल से सने हुए थे, पर उनकी आंखों में देशभक्ति की चमक थी।
बलवंत सिंह ने उन्हें देखकर तुरंत खाना बनाना शुरू कर दिया। उन्होंने ताजी रोटियां, दाल, सब्जी और सलाद बनाया। जवानों ने उस घर जैसा खाना बहुत पसंद किया। खाने के बाद जब बिल देने की बात आई, तो बलवंत सिंह ने हाथ जोड़कर मना कर दिया कि वे पैसे नहीं लेंगे। उन्होंने कहा, “तुम लोग इस देश की रक्षा कर रहे हो, मैं कैसे तुमसे पैसे ले सकता हूँ?”
सेना के सूबेदार गुरमीत सिंह बहुत प्रभावित हुए। उन्होंने बलवंत सिंह को गले लगाकर कहा कि वे एक सच्चे देशभक्त हैं। बलवंत सिंह ने कहा कि वे बस अपना फर्ज निभा रहे हैं। जवानों ने बलवंत सिंह को एक प्रतीक चिन्ह दिया और वादा किया कि वे फिर से आएंगे।
कुछ महीनों बाद मानसून आया और भारी बारिश ने बलवंत सिंह के ढाबे को बुरी तरह नुकसान पहुंचाया। छत टपकने लगी, राशन खराब हो गया और ग्राहक कम हो गए। आर्थिक तंगी के कारण बलवंत सिंह ने कर्ज लेना पड़ा। एक लालची सूदखोर श्यामलाल ने उनका ढाबा गिरवी रख लिया और जब कर्ज चुकाने का समय आया, तो उसने बलवंत सिंह को धमकाना शुरू कर दिया।
बलवंत सिंह की स्थिति बहुत खराब हो गई। एक दिन श्यामलाल ने उनके सामान बाहर फेंकने की कोशिश की। प्रिया डरकर अपने दादा से लिपट गई। उसी वक्त सेना के कई ट्रक और जवानों का काफिला उनके ढाबे के सामने आकर रुका। सूबेदार गुरमीत सिंह और एक कर्नल साहब भी उनके साथ थे।
कर्नल साहब ने श्यामलाल को कड़क आवाज़ में कहा कि वह बलवंत सिंह का कर्ज चुका देंगे। उन्होंने अपने जवानों के लिए पैसे निकालकर श्यामलाल को थमा दिए और उसे वहां से भगा दिया। फिर कर्नल साहब ने बलवंत सिंह को बताया कि भारतीय सेना उनके इस ढाबे को गोद लेगी और एक नया, आधुनिक ढाबा बनाएगी, जिसका नाम होगा “शहीद कैप्टन विक्रम सिंह मेमोरियल ढाबा”।
प्रिया की पढ़ाई की पूरी जिम्मेदारी सेना ने उठाई। उसे पुणे के आर्म्ड फोर्सेस मेडिकल कॉलेज में दाखिला दिलवाया गया। बलवंत सिंह और प्रिया दोनों भावुक थे, पर उनकी आंखों में खुशी के आंसू थे।
कुछ महीनों बाद नया ढाबा बनकर तैयार हो गया। बलवंत सिंह ने उद्घाटन किया और अब वे एक सम्मानित उद्यमी थे। वे हर फौजी को उसी प्यार और सम्मान से खाना खिलाते थे जैसे पहले करते थे। प्रिया डॉक्टर बनकर देश की सेवा करने लगी।
यह कहानी हमें सिखाती है कि देशभक्ति केवल हथियार उठाने का नाम नहीं, बल्कि अपने छोटे-छोटे त्यागों और नेक कामों में भी होती है। बलवंत सिंह ने अपने ढाबे पर फौजियों को खाना खिलाकर जो सम्मान पाया, वह उनके लिए और उनकी आने वाली पीढ़ियों के लिए अनमोल था।
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