माँ और बेटे की अनकही दास्ताँ

दिल्ली के एक व्यस्त इलाके नेहरू प्लेस के पास एक कंप्यूटर की दुकान थी, जहाँ गोपाल और उसकी पत्नी देविका मिलकर काम करते थे। गोपाल की दुकान नेहरू प्लेस में अच्छी चलती थी। वे दोनों रोज़ अपनी कार से ऑफिस जाते और वापस आते। रास्ते में जहां भी ट्रैफिक लाइट लगती, कई बच्चे और भीख मांगने वाले लोग उनके आस-पास आ जाते थे। उनमें एक बच्चा था, केशव, जो गुब्बारे, पान, फूल और पेन बेचता था। उसकी मासूमियत और भोली-भाली बातें देविका को पसंद आने लगी थीं।

देविका को केशव की मासूमियत भा गई थी। वह अक्सर उससे कुछ खरीदती और चुपके से उसे कुछ रुपये भी देती। केशव भी देविका को देख मुस्कुराता और कहता, “आंटी, गुब्बारे ले लीजिए।” देविका कहती, “मेरा बच्चा तो गुब्बारे फोड़ देगा,” तब केशव जवाब देता, “अगर आप छोड़ोगी तो फूटेंगे नहीं।” यह बात सुनकर देविका की आंखें नम हो जातीं।

एक दिन, जब देविका अपनी कार में बैठी थी, तो केशव अचानक कहीं दिखाई नहीं दिया। उसे पता चला कि केशव का एक्सीडेंट हो गया है। वह तुरंत उसके घर संगम विहार गई, जहाँ उसकी दादी रहती थी। दादी को देखकर देविका भावुक हो उठी, क्योंकि वह दादी उसे पहचान गई और रोने लगी, “मैं तेरे बेटे को नहीं बचा सकी।”

देविका को समझ में आया कि यह बच्चा उसका खोया हुआ बेटा था, जिसे उसने 8 साल पहले छोड़ दिया था। उस बच्चे का नाम भी दीपक था, जो गोपाल से शादी करने से पहले देविका का पहला बेटा था। देविका ने उसे जन्म दिया था, लेकिन परिवार की मजबूरियों और परिस्थितियों के कारण उसे छोड़ना पड़ा था।

देविका की कहानी कुछ ऐसी थी—जब वह 18-19 साल की थी, तब उसे दीपक नाम के एक लड़के से प्यार हो गया। उन्होंने शादी कर ली और एक बेटा हुआ। लेकिन दीपक एक हिस्ट्रीशीटर था, गैंगस्टर से जुड़ा हुआ। कुछ समय बाद दीपक की हत्या हो गई। देविका अकेली और मजबूर रह गई। उसके माता-पिता ने उसे दूसरी शादी करने को कहा, लेकिन शर्त यह थी कि वह अपने बेटे को छोड़ दे। मजबूरन देविका ने अपने बेटे को छोड़ दिया और अपने माता-पिता के साथ रहने लगी।

कुछ साल बाद देविका की शादी गोपाल से हो गई, जो नेहरू प्लेस में कंप्यूटर की दुकान चलाता था। देविका ने अपनी पिछली जिंदगी की बातें गोपाल से छुपा कर रखीं। वे दोनों साथ में खुश थे, लेकिन देविका के दिल में अपने बेटे की याद हमेशा बनी रही।

केशव, जो अब 8 साल का हो चुका था, संगम विहार की झुग्गी में अपनी दादी के साथ रहता था। उसने भी जीवन की कठिनाइयों को झेला और सड़क पर गुब्बारे, फूल, पेन बेचकर अपनी दादी की मदद करता था। उसकी दादी बीमार रहने लगी थी, इसलिए केशव ने पैसे कमाने की ठानी।

एक दिन देविका को पता चला कि उसका बेटा गंभीर हालत में अस्पताल में है। वह तुरंत वहां पहुंची और बेटे को देखा। बच्चा घायल, कमजोर था लेकिन जीवित था। देविका ने बेटे की देखभाल शुरू की। धीरे-धीरे बेटे की हालत सुधरी और वह ठीक होने लगा।

गोपाल को जब इस बात का पता चला, तो वह नाराज हो गया कि देविका ने उसे सच नहीं बताया। उसने कहा, “तुमने मुझसे झूठ क्यों बोला?” लेकिन देविका ने कहा, “मैंने तुम्हें सच बताने की हिम्मत नहीं की। मेरा बेटा मेरी जिंदगी है।”

धीरे-धीरे गोपाल ने समझा कि देविका के लिए यह कितना मुश्किल था। उसने अपने गुस्से को त्याग दिया और परिवार के लिए समर्पित हो गया। अब वे तीनों मिलकर खुशहाल जीवन बिताने लगे।

देविका ने अपने बेटे के लिए एक नया घर बनाया, जहाँ प्यार, सम्मान और देखभाल थी। केशव ने स्कूल जाना शुरू किया और पढ़ाई में अच्छा प्रदर्शन किया। उसकी दादी की तबीयत भी सुधरी।

समय के साथ, देविका और गोपाल ने अपने रिश्ते को मजबूत किया। उन्होंने सीखा कि परिवार में सच्चा प्यार और समझदारी सबसे जरूरी होती है। उन्होंने अपने अतीत को पीछे छोड़कर एक नई शुरुआत की।

यह कहानी हमें यह सिखाती है कि चाहे जीवन में कितनी भी कठिनाइयाँ आएं, माँ का प्यार कभी खत्म नहीं होता। रिश्ते टूट सकते हैं, पर इंसानियत और परिवार का बंधन हमेशा बना रहता है। हमें अपने अपनों को समझना और साथ देना चाहिए।

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