सड़क पर घायल पड़ी महिला को सब देखकर निकलते रहे , फिर एक फौजी ने उसकी मदद की फिर उसने जो किया सबके

एक फौजी, एक घायल और भीड़ की चुप्पी”

एक फौजी, एक घायल और भीड़ की चुप्पी

क्या कभी आपने सोचा है कि हम कैसे समाज में जी रहे हैं? एक ऐसा समाज जहां जेब में रखा मोबाइल फोन सड़क पर तड़पते हुए इंसान की जिंदगी से ज्यादा कीमती हो गया है। जहां किसी की मदद के लिए हाथ बढ़ाने से पहले लोग वीडियो बनाने के लिए कैमरा ऑन करते हैं। इंसानियत पर पुलिस केस का डर और “मैं क्यों पड़ूं” वाली सोच हावी हो गई है। यह कहानी हमारे-आपके आसपास की ही है—भीड़ की, तमाशबीन समाज की, और उस एक फौजी की, जिसने इंसानियत की एक नई मिसाल कायम की।

दिल्ली, सपनों और अवसरों का शहर, जहां लाखों लोग अपनी-अपनी दौड़ में भाग रहे हैं, किसी के पास किसी के लिए वक्त नहीं है। इसी भीड़ में त्रिलोकपुरी की एक बस्ती में रहती थी अरुणा देवी, 45 साल की विधवा, जो अपने 12 साल के बेटे रोहित को पढ़ा-लिखा कर बड़ा अफसर बनाना चाहती थी। रोज़ सुबह 5 बजे उठकर घर का काम, फिर दूसरों के घरों में चौका-बर्तन—बस एक ही सपना, बेटे का भविष्य।

एक शाम, जब अरुणा काम से लौट रही थी, उसके हाथ में थैला था जिसमें रोहित के लिए जलेबियां और नई कॉपी थी। सड़क पार करते वक्त एक तेज रफ्तार काली कार ने उसे जोरदार टक्कर मार दी। अरुणा सड़क पर खून से लथपथ पड़ी थी, उसका थैला दूर जा गिरा, सब्जियां और कॉपी सड़क पर बिखर गई। कार रुकी नहीं, भीड़ जुटी, लेकिन मदद के लिए नहीं, तमाशा देखने के लिए। किसी ने Facebook लाइव शुरू किया, कोई गाड़ी की खिड़की से झांककर आगे बढ़ गया, कोई पुलिस केस के डर से पीछे हट गया। बहसें, वीडियो, अफवाहें—पर कोई आगे नहीं आया।

समय बीतता गया, अरुणा की सांसें धीमी पड़ने लगीं। दो घंटे तक वह सड़क पर तड़पती रही। तभी पास के बस स्टॉप से एक नौजवान उतरा—कैप्टन अखिलेश प्रताप, भारतीय सेना का अफसर, छुट्टी पर घर लौटते हुए। उसने भीड़ को चीरते हुए अरुणा तक पहुंचा, उसकी हालत देखी, और बिना देर किए मदद के लिए आवाज लगाई। किसी ने पानी दिया, पर कोई गाड़ी नहीं रोक रहा था। आखिरकार उसने खुद अरुणा को गोद में उठाया, सड़क पर ऑटो के सामने खड़ा हो गया। पैसे और अपने फौजी अधिकार से ऑटोवाले को मनाया, अरुणा को अस्पताल पहुंचाया।

अस्पताल में भी फॉर्म, पुलिस केस की औपचारिकताएं—पर अखिलेश ने डॉक्टरों से कहा, “पहले इलाज, बाद में फॉर्म।” उसने इलाज का सारा खर्च उठाया। पुलिस आई, बयान लिया। अखिलेश ने कहा, “मैं फौजी हूं, मेरी ट्रेनिंग कहती है घायल साथी को कभी पीछे नहीं छोड़ना। सड़क पर पड़ा हर नागरिक मेरा साथी है। डर से बड़ा अफसोस होता, अगर मैं इन्हें मरने के लिए छोड़ देता।”

ऑपरेशन सफल रहा। डॉक्टर ने कहा, “अगर आप आधा घंटा और देर कर देते तो हम इन्हें नहीं बचा पाते।” रोहित मां से लिपटकर रो पड़ा। अरुणा ने होश में आकर अखिलेश को धन्यवाद देना चाहा, पर उसने कहा, “माताजी, जल्दी ठीक हो जाइए, वही मेरा धन्यवाद है।” वह चुपचाप चला गया, कोई पहचान या वाहवाही नहीं चाहता था।

भीड़ में मौजूद एक व्यक्ति ने सोशल मीडिया पर अखिलेश की बहादुरी की कहानी लिखी, जो वायरल हो गई। न्यूज़ चैनल ने सीसीटीवी से काली कार का नंबर निकाला, पुलिस ने ड्राइवर को गिरफ्तार किया। अखिलेश का संदेश टीवी पर आया—”घायल में कोई अजनबी नहीं, अपना देखिए। कानून आपकी सुरक्षा करता है, मदद कीजिए। एक फोन कॉल, एक छोटी सी पहल किसी की जान बचा सकती है। इंसानियत की रक्षा के लिए वर्दी नहीं, दिल चाहिए।”

इस घटना ने पूरे शहर को झकझोर दिया। स्कूल, कॉलेज, ऑफिस में ‘गुड समेरिटन लॉ’ पर चर्चा शुरू हुई। अरुणा जब ठीक होकर घर लौटी, तो उसे एक पार्सल मिला—रोहित की सालभर की फीस, किताबें, और एक चिट्ठी—”रोहित को कहना खूब मन लगाकर पढ़े, एक दिन अपनी मां और देश का नाम रोशन करे।” नीचे नाम नहीं था, बस लिखा था—”एक फौजी।”

सीख और सवाल:

यह कहानी हमसे एक जरूरी सवाल पूछती है—क्या हम इतने संवेदनहीन हो गए हैं कि किसी की जान से ज्यादा हमें सोशल मीडिया के लाइक्स प्यारे हैं? कैप्टन अखिलेश ने दिखा दिया कि हीरो बनने के लिए न सुपरपावर चाहिए, न वर्दी—बस एक धड़कता दिल और मदद का जज्बा चाहिए।

भारत का ‘गुड समेरिटन लॉ’ कहता है—अगर आप सड़क दुर्घटना के पीड़ित की मदद करते हैं तो आपको कोई नहीं फंसाएगा। अगली बार जब ऐसी कोई घटना देखें तो मुंह न फेरें, कम से कम एक फोन कॉल करें, और हिम्मत हो तो प्राथमिक उपचार दें, अस्पताल पहुंचाएं—आपकी एक पहल किसी के लिए जीवनदान बन सकती है।

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धन्यवाद।