डाकिया हर महीने चिट्ठी लाता था – पर भेजने वाला कोई नहीं था – फिर जो हुआ

“रिवाना सैनी – एक नाम, एक रहस्य”
हर महीने मोहनलाल डाकिया गली के कोने पर आता और आवाज लगाता – “रिवाना सैनी के नाम पर चिट्ठी आई है।”
संजय तेजपाल के हाथ थम जाते, सांस जैसे रुक जाती। उस मोहल्ले में कोई रिवाना सैनी थी ही नहीं। फिर हर महीने उसके नाम पर चिट्ठी क्यों आती है?
मैं संजय तेजपाल, 34 साल का, इसी मोहल्ले में पैदा हुआ, पला-बढ़ा। मेरी छोटी सी किराना दुकान है। वही रोजमर्रा के ग्राहक, वही बातें। लेकिन जब से ये चिट्ठियां आने लगीं, सब बदल गया था। हर पांच तारीख को डाकिया आता, लाल रिबन में बंधा लिफाफा छोड़ जाता। न भेजने वाले का नाम, न पता, न हस्ताक्षर – बस सामने लिखा होता, “रिवाना सैनी”।
पहली बार जब चिट्ठी आई, सोचा किसी का मजाक है। लेकिन तीसरी, चौथी, पांचवी बार भी वही नाम आया, तो शक डर में बदल गया। कॉलोनी में सबको पता था, पर कोई कुछ नहीं जानता था। बुजुर्ग सुधा बेन ने कहा, “इस नाम की तो कोई लड़की कभी यहां रही ही नहीं।” फिर भी चिट्ठियां आती रहीं।
एक बार मैंने मोहनलाल से पूछा, “भाई, ये रिवाना कौन है?”
वो चुप हो गया, फिर बोला, “मुझे क्या पता संजय? बस हर महीने यही पता लिखा होता है। मेरी ड्यूटी है पहुंचा देना।” उसकी आवाज में झिझक थी, जैसे कुछ छुपा रहा हो।
एक रात दुकान बंद करते वक्त फाटक के पास वही लिफाफा पड़ा मिला – इस बार बिना तारीख के। खोला तो अंदर बस तीन शब्द थे – “वह कभी थी ही नहीं।” मेरी रगों में ठंड दौड़ गई। किसके लिए लिखा जा रहा है ये सब?
मैंने सारी पुरानी चिट्ठियां संभाल रखी थीं। हर एक में कुछ अलग लिखा था – कभी किसी खुशबू का जिक्र, कभी पुराने गीत का, कभी बस एक अक्षर। समझ नहीं आ रहा था कि ये पागलपन है या कोई गहरी कहानी।
रहस्य की तलाश
अगले हफ्ते मैंने ठान लिया – अब इस रहस्य को सुलझाना ही होगा। पूरे मोहल्ले में पूछताछ की। किसी को रिवाना नाम की कोई लड़की याद नहीं। तभी एक दिन सुधा बेन ने कहा, “मेरे पास पुराना रजिस्टर है, शायद उसमें कुछ हो।”
उन्होंने एक पुरानी नोटबुक दी। पन्ने पीले हो चुके थे। बीच के एक पन्ने पर हल्के से लिखा था – “देशमुख क्लीनिक – रिवाना प्रोजेक्ट फाइल।”
देशमुख क्लीनिक तो दस साल पहले बंद हो चुका था। उसकी मालिक थी – नीलिमा देशमुख। लोग कहते थे, वो पागल हो गई थी, किसी प्रयोग में फंस गई थी।
मैंने उसी रात तय किया – अब मुझे उस क्लीनिक तक जाना होगा। अगली सुबह बाइक उठाई और पुराने अस्पताल इलाके की तरफ चला पड़ा। क्लीनिक की दीवारों पर बेलें चढ़ी थीं, दरवाजा जंग खा चुका था। अंदर अंधेरा, धूल, जाले और टूटी अलमारी।
कमरे की दीवारों पर अजीब चिन्ह बने थे, किसी अनजानी भाषा के। एक मेज पर पुरानी डायरी पड़ी थी – डॉक्टर नीलिमा देशमुख।
शुरू के पन्ने पर लिखा था – “प्रोजेक्ट रिवाना: आवाज को अस्तित्व देना।”
मैं सिहर गया – आवाज को अस्तित्व देना? क्या ये कोई प्रयोग था?
नीचे लिखा था – “हर शब्द में एक आत्मा होती है। हर नाम एक धड़कन रखता है। अगर उस धड़कन को सही तरह से सुन लिया जाए तो वह जीवित हो सकती है।”
क्या नीलिमा ने किसी नाम को जिंदा करने की कोशिश की थी? क्या रिवाना सैनी उसी प्रयोग का नतीजा थी?
डायरी के आखिरी पन्ने पर बस एक लाइन थी – “अगर ये पत्र तुम्हें मिले तो समझो, वह लौट आई है।”
नई कड़ी – वसुंधरा रॉय
अगली सुबह मोहनलाल फिर आया, बोला – “आज आखिरी है।”
मैंने पूछा – “क्या मतलब?”
वो बोला – “मुझे कहा गया था, 11 चिट्ठियों के बाद देना बंद कर दूं। किसने कहा?”
“डॉ. वसुंधरा रॉय।”
वसुंधरा रॉय शहर के दूसरे छोर पर लैब में रिसर्च करती थी।
मैं तुरंत उनसे मिलने गया।
“डॉक्टर, रिवाना सैनी कौन है?”
उन्होंने शांत आवाज में कहा – “वो कोई नहीं है, पर फिर भी सब में है।”
वसुंधरा बोली – “नीलिमा मेरी गुरु थी। उसने जो शुरू किया, मैं उसे खत्म कर रही हूं। नीलिमा का मानना था, अगर किसी नाम को बार-बार पुकारा जाए, अगर उसे सच्चाई मान लिया जाए, तो वह जिंदा हो सकता है। रिवाना सैनी एक नाम नहीं, एक कोशिश थी।”
“तो ये चिट्ठियां?”
“प्रयोग का हिस्सा। हर महीने किसी ऐसे को भेजी जाती हैं जो अभी तक भूल नहीं पाया। मतलब तुम।”
मैं पीछे हट गया – “मैं क्यों?”
“क्योंकि नीलिमा ने आखिरी बार जो लिखा था, उसमें तुम्हारा नाम था। अगर संजय तेजपाल को ये चिट्ठियां मिले तो समझना उसने मेरी रिवाना को छू लिया था।”
सच का सामना
वसुंधरा ने मुझे एक फाइल दी – “सबूत क्लिनिक केस 11″।
अंदर मेरी बचपन की फोटो थी – मैं और मेरे माता-पिता। पीछे किसी ने लिखा था – “रिवाना सैनी का पहला साक्षी।”
“नीलिमा ने कहा था, अगर वह कभी लौटे तो तुम्हारे जरिए लौटेगी।”
मैं कुछ बोल नहीं पाया।
बाहर वही डाकिया खड़ा था, झोली में आखिरी चिट्ठी।
लिफाफा खोला – “मुझे याद है, तुमने कहा था। मैं अगर लौटूं तो चिट्ठियों में आऊंगी।”
क्या ये किसी और की आवाज थी या मेरे अतीत की?
स्मृति की प्रयोगशाला
वसुंधरा मुझे लैब ले गई – नीलिमा देशमुख की पुरानी क्लीनिक का पुनर्निर्माण।
कमरे के बीचोंबीच शीशे का चेंबर, पुराने टेप रिकॉर्डर, नोट्स, मशीनें।
वसुंधरा ने कहा – “नीलिमा ने रिवाना प्रोजेक्ट 1998 में शुरू किया था। मकसद था स्मृति को स्वर देना। यानी किसी इंसान की याद, आवाज, एहसासों को तकनीक से फिर से जीवित करना।”
“पर ये असंभव है!”
“हां, पर नीलिमा ने कोशिश की थी। उसमें उसने तुम्हारा इस्तेमाल किया।”
“मेरा?”
“हां, बचपन में तुम्हें याद नहीं होगा। तुम कुछ महीनों तक नीलिमा के क्लीनिक में थे। तुम्हारे माता-पिता का एक्सीडेंट हुआ था, तुम वहीं भर्ती थे। नीलिमा तुम्हें अपना पहला केस मानती थी। उसने तुम्हारे सपनों की बातें रिकॉर्ड की थीं।”
“और रिवाना?”
“रिवाना तुम्हारे ही सपनों की आवाज थी। नीलिमा ने तुम्हारे सबकॉन्शियस से एक कल्पित पहचान निकाली थी – एक लड़की, जो तुम्हारी कल्पना में थी, लेकिन असल में कभी नहीं थी। उसे उसने नाम दिया – रिवाना सैनी।”
कल्पना का जीवन
“तो ये चिट्ठियां?”
“वही प्रोजेक्ट की कोडिंग है। हर महीने वही चिट्ठियां उसी सीक्वेंस में भेजी जाती हैं ताकि रिवाना की फ्रीक्वेंसी दोबारा तुम्हारे अंदर गूंजे। नीलिमा ने सोचा था, अगर तुम उस नाम को पहचान लोगे तो रिवाना सुनाई देने लगेगी।”
“सुनाई देने?”
“हां, जैसे खोए हुए गीत की तरह। वह अब तुम्हारे भीतर है।”
मुझे लगा मैं पागल हो जाऊंगा।
“तो क्या ये सब तुमने भेजा?”
“नहीं, ये नीलिमा के पुराने सिस्टम से आता है। उसने मरने से पहले सब ऑटोमेटिक कर दिया था।”
अचानक लैब की लाइट झपकने लगी। कंप्यूटर स्क्रीन पर अपने आप टाइप होने लगा –
“सब्जेक्ट डिटेक्टेड – रिवाना रिस्पॉन्डिंग।”
फिर एक आवाज आई – बहुत धीमी, जैसे पुराने टेप की फुसफुसाहट –
“संजय, तुमने कहा था, मैं अगर लौटूं तो चिट्ठियों में आऊंगी।”
मेरे हाथ कांप रहे थे।
वसुंधरा बोली – “यह रिकॉर्डेड आवाज नहीं है, यह लाइव फ्रीक्वेंसी है।”
अंतिम परीक्षा
आवाज फिर आई – “मुझे याद है वह रात, जब तुमने मुझे बारिश में नाम दिया था।”
बचपन की धुंधली यादें लौट आईं – काल्पनिक दोस्त से बातें, वादा किया था – “अगर लौटे तो चिट्ठी भेजना।”
वसुंधरा बोली – “अब उसे खत्म करना होगा, वरना वह तुम्हारे अंदर पूरी तरह हावी हो जाएगी।”
“मतलब?”
“वह कोई इंसान नहीं, स्मृति की परछाई है। अगर पहचान लिया जाए तो असली बन जाती है। अगर तुम उससे बात करते रहोगे तो तुम खुद मिट जाओगे।”
अचानक लैब की स्क्रीन पर फिर टाइप हुआ –
“फेज दो एक्टिवेट हुआ।”
कमरे में अंधेरा, मशीनों से गूंज, हवा में सुर।
वसुंधरा ने कहा, “संजय पीछे हटो।”
पर मैं वहीं जम गया।
आवाज अब साफ थी – “मैं यहां हूं, तुम्हारे पीछे।”
दीवार पर परछाई थी – किसी लड़की की आकृति, बाल खुले, हाथों में लाल रिबन।
वसुंधरा चिल्लाई – “संजय, उसे मत देखो!”
पर मैं देखता रहा।
वो बोली – “तुम मुझे भूल गए, पर मैं नहीं गई थी।”
मैंने कहा – “रिवाना?”
वो मुस्कुराई – “हां, वो आवाज, जो सपनों में आती थी। मैं कभी थी ही नहीं, लेकिन तुमने मुझे चाहा था। तुमने मुझे नाम दिया था, और नाम में जान होती है।”
वसुंधरा ने मशीन बंद करने की कोशिश की, पर बिजली लौट आती।
रिवाना ने मेरा हाथ पकड़ने को बढ़ाया – “आओ, पूरा करो वो जो अधूरा छोड़ा था।”
“क्या अधूरा?”
“वो वादा – अगर मैं लौटूं तो मुझे पहचानना।”
वसुंधरा चीखी – “संजय, उसका हाथ मत पकड़ना, नहीं तो तुम भी गायब हो जाओगे।”
अंतिम मोड़
मैंने एक कदम आगे बढ़ाया। जैसे ही मेरा हाथ उसके करीब आया, हवा में झटका हुआ, लैब की खिड़कियां फट गईं, रोशनी फैल गई।
मैं बेहोश हो गया।
जब आंख खुली, अस्पताल में था।
वसुंधरा पास बैठी थी – “तुम दो दिन तक बेहोश थे।”
“वो कहां है?”
“वो चली गई, या शायद तुम्हारे अंदर है।”
मेरी हथेली पर हल्की लाल रिबन की निशान थी।
“अब और चिट्ठियां नहीं आएंगी।”
लेकिन उस रात घर लौटा तो दरवाजे पर वही दस्तक –
लिफाफा, लाल रिबन, लिखा था – “संजय तेजपाल”।
अब चिट्ठी मेरे नाम पर आई थी।
क्या वह लौट आई थी, या अब वह मैं था?
डायरी खोली – पुराने पन्ने खुद ब खुद पलटने लगे, नीलिमा की लिखावट –
“जिस दिन रिवाना अपना नाम बदल ले, समझना वह इंसान बन चुकी है।”
खिड़की में मेरा चेहरा झिलमिला रहा था, पर आंखें उसकी थी।
नया अध्याय
कमरे की हवा भारी हो गई।
मेरे भीतर कोई फुसफुसा रहा था – “अब तुम लिखोगे और मैं बोलूंगी।”
पेन उठाया, हाथ अपने आप चलने लगा –
“हर महीने एक लड़के के नाम पर चिट्ठी आती है, लेकिन वह लड़का इस दुनिया में कभी था ही नहीं।”
शब्द अपने आप कागज पर उतरते जा रहे थे।
कमरे में सन्नाटा, दीवारों पर हल्की गूंज –
“संजय, अब मेरी बारी है।”
उसने कहा – “तुमने मुझे लिखा था, अब मैं तुम्हें लिखूंगी।”
पेन छोड़ने की कोशिश की, पर उंगलियां किसी और की थी।
“वह कहता था – मैं कभी थी ही नहीं, और अब वह खुद है या नहीं, कोई नहीं जानता।”
कमरे की बत्तियां बुझ गईं, खिड़की के बाहर बिजली चमकी, कांच पर मेरी परछाई – उसके पीछे कोई खड़ा था – वही लाल रिबन वाली आकृति।
“रिवाना, अब क्या चाहती हो?”
“बस एक आखिरी बार सुना जाना। तुम्हारे बिना मेरा नाम अधूरा है, और मेरे बिना तुम्हारा सच।”
“पर तुम असली नहीं हो।”
“अब कौन असली है, कौन लिखा गया है? फर्क तुमने मिटा दिया है।”
अंतिम फैसला
वसुंधरा आई – “संजय, तुम्हारा सिग्नल फिर एक्टिव हो गया है।”
“वो वापस आ गई है?”
“नहीं, वो तुम हो।”
अब दोनों फ्रीक्वेंसी एक हो चुकी थी।
“अब फैसला तुम्हारा है – कौन रहेगा, तुम या वो?”
हर चिट्ठी हवा में उड़ रही थी, रिवाना की आवाज फिर आई –
“तुम मुझे मिटाओगे तो खुद मिट जाओगे।”
वसुंधरा ने स्क्रीन खोली –
“नीलिमा का आखिरी प्रोटोकॉल यही था – अगर दोनों एक हो जाएं तो एक को दूसरे का नाम लिखना होगा। अगर तुम उसका नाम लिखोगे, वह खत्म होगी। अगर वह तुम्हारा नाम लिखेगी, तुम खत्म हो जाओगे।”
मैंने कांपते हुए पेन उठाया, कागज पर नाम लिखा – “रिवाना”
पर हाथ रुक गया। वो सामने खड़ी थी, आंखों में आंसू।
“क्यों?”
“क्योंकि अगर मैं लिख दूं, तुम खत्म हो जाओगी।”
“और अगर मैं लिख दूं, तो तुम…”
“शायद यही सही होगा।”
“नहीं, मैंने तो चाहा था जिंदा होना, तुम्हें मिटाना नहीं।”
वसुंधरा ने चिल्लाया – “कोई तो लिखो, वरना दोनों खत्म हो जाओगे!”
हम दोनों एक-दूसरे को देख रहे थे – आंखों में हजारों यादें, जो कभी हुई ही नहीं।
“अगर तू मेरी कल्पना है, तो तू मुझसे ज्यादा सच्ची है।”
“और अगर तू असली है, तो मुझे भी तूने असली बना दिया।”
उसने मेरे हाथ से पेन लिया, अपने हाथ पर लिखा – “संजय”
“अब मेरी बारी है खत्म होने की।”
कमरे की लाइट्स तेज हुईं, आंखें बंद करनी पड़ी।
जब दोबारा आंखें खोली, वह गायब थी।
टेबल पर एक लिफाफा – “अब वह जा चुकी है।”
अंतिम चिट्ठी
लिफाफा खोला –
“अब हर महीने मेरे नाम पर नहीं, तुम्हारे नाम पर चिट्ठी आएगी क्योंकि अब मैं तुम्हारे अंदर हूं।”
अब वह सिर्फ मेरी याद है।
वह कभी थी नहीं, लेकिन अब कभी जाएगी भी नहीं।
हवा में वही पुरानी खुशबू, खिड़की खोलते ही हल्की बारिश।
“धन्यवाद।”
वो उसकी आवाज थी।
उस रात देर तक जागता रहा – हर आवाज, हर गंध, हर छाया में उसकी मौजूदगी।
अगले महीने 5 तारीख आई, मोहनलाल नहीं आया, पर दरवाजे के नीचे एक लिफाफा सरक गया –
“संजय तेजपाल”
अंदर बस एक पंक्ति –
“अब मैं तुम्हारे सपनों में नहीं, तुम्हारे शब्दों में रहूंगी।”
मैंने वह चिट्ठी दुकान के कोने में रख दी।
वसुंधरा ने बाद में कहा – “सिस्टम बंद हो गया है, सब फाइलें मिट चुकी हैं।”
पर मैं जानता था – कुछ नहीं मिटा, बस जगह बदलती है।
कहानी का अंत… या एक नई शुरुआत
दिन बीतते गए, मैं दुकान पर लौट आया। वही ग्राहक, वही बातें।
पर अब जब भी कोई लड़की लाल रिबन बांधकर गुजरती, दिल एक पल को रुक जाता।
कभी-कभी हवा में वही इत्र की खुशबू फैल जाती।
और मैं बिना सोचे कह देता – “रिवाना।”
लोग हंस देते, पर मुझे पता था – वह सुन रही है।
एक शाम वसुंधरा आई – “मैं जा रही हूं इस शहर से, अब मेरा काम खत्म।”
“क्या सच में सब खत्म?”
वो मुस्कुराई – “कभी नहीं। कुछ कहानियां खत्म नहीं होती, बस सुनी जाती हैं।”
उन्होंने मुझे एक डायरी दी –
“रिवाना सैनी – एक नाम, जो कभी था ही नहीं, पर अब हर शब्द में है। इसे रख लो, शायद किसी दिन कोई और इसे पढ़े और वह भी किसी को लिखे।”
वो चली गई।
मैं दुकान पर बैठा डायरी को घूरता रहा।
अचानक हवा चली, पन्ने खुद पलट गए, एक नया पन्ना खुला –
“Part of you will always be…”
हल्के से मुस्कुराया, बाहर बारिश शुरू हो चुकी थी।
दुकान बंद की, घर लौटा, दरवाजे पर कोई खड़ा था – लाल रिबन बंधा, सफेद साया।
वह मुस्कुरा रही थी।
मैंने कुछ नहीं कहा, बस आंखें बंद की।
हवा में उसकी खुशबू और मेरी सांस एक साथ घुल गई।
मुझे समझ आया –
कभी-कभी कुछ लोग इस दुनिया में होते ही इसलिए हैं कि किसी की कल्पना पूरी कर सकें।
आंखें खोली, वह नहीं थी।
पर कमरे में एक लिफाफा रखा था – “आखिरी चिट्ठी”
खोला –
“अब कोई नहीं आएगा, क्योंकि अब मैं तुम में हूं।”
नीचे छोटा सा सिग्नेचर – “रिवाना सैनी।”
उस दिन के बाद पांच तारीख कभी नहीं आई।
समय जैसे रुक गया।
पर हर बार जब मैं कलम उठाता हूं, शब्द अपने आप बहने लगते हैं, उनमें उसकी मुस्कुराहट, उसकी आवाज, उसका नाम गूंजता है।
अब मैं समझ चुका हूं –
कभी-कभी कहानी लिखने वाला और कहानी खुद एक हो जाते हैं।
और जब ऐसा होता है, कोई नहीं मरता, कोई नहीं मिटता – बस नाम बदल जाता है।
अब भी लिखता हूं, पर अपने लिए नहीं – उसके लिए, जो कभी थी ही नहीं, और फिर भी हमेशा रहेगी।
रिवाना सैनी अब वह नाम नहीं, मेरा हिस्सा है।
यही उसका आखिरी वादा था –
“अगर मैं लौटूं तो तुम्हारे शब्दों में रहूंगी।”
अब वह वहीं है – हर शब्द में, हर सांस में, हर चिट्ठी में।
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मिलते हैं एक नई कहानी में। जय हिंद। वंदे मातरम।
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