छोटी सी गलती पर गरीब रसोइये को ढाबे से निकाला, उसके जाने के बाद उसका सच पता चला फिर जो हुआ

हुनर की पहचान – रामप्रकाश और रंजीत की कहानी
जयपुर के पास एक व्यस्त हाईवे पर श्रीमाली वैष्णव ढाबा का बोर्ड दूर से ही नज़र आता था। यह ढाबा रामप्रकाश श्रीमाली का था – एक ऐसा व्यक्ति जो अपने पिता से विरासत में यह ढाबा तो पा गया, मगर मेहनत की जगह किस्मत और बाबाओं के टोटकों पर ज्यादा विश्वास रखता था। उसके हाथ में कई तरह की अंगूठियां और माथे पर चंदन का टीका हमेशा चमकता रहता था।
ढाबे की हालत बहुत खराब थी। खाना बेस्वाद, ग्राहक कम, मक्खियां भिनभिनाती रहतीं। रामप्रकाश अपनी असफलता की वजह अपने ग्रहों को मानता और हर अमावस-पूर्णिमा को बाबा ज्ञानानंद महाराज के दरबार में उपाय पूछने जाता। कभी दरवाजे का रंग बदलता, कभी पानी का घड़ा खास दिशा में रखता, मगर ढाबे की हालत जस की तस रहती।
एक दिन किस्मत ने नया दरवाजा खोला। एक दुबला-पतला, सांवला लड़का – रंजीत, असम के छोटे से गाँव से आया, जिसके परिवार ने बाढ़ में सब कुछ खो दिया था। बीमार मां, छोटी बहनें और बूढ़े पिता की जिम्मेदारी उसके कंधों पर थी। कई दिनों से भूखा-प्यासा, काम की तलाश में भटकता हुआ वह रामप्रकाश के ढाबे पहुंचा।
रामप्रकाश ने उसकी गरीबी देखकर उसे बर्तन धोने का काम दे दिया – ₹100 रोज़ और तीन वक्त का खाना। रंजीत ने काम में जी-जान लगा दी। सफाई, बर्तन, सब कुछ इतनी लगन से करता कि बाकी कर्मचारी भी हैरान हो गए।
एक हफ्ते बाद ढाबे का मुख्य रसोइया अपने गाँव चला गया और अचानक ग्राहकों की भीड़ बढ़ गई। रामप्रकाश परेशान था। रंजीत ने हिम्मत करके कहा, “मालिक, मैं खाना बना दूं?”
रामप्रकाश ने अनमने मन से इजाज़त दी – “अगर खराब बना तो तनख्वाह से पैसे काटूंगा।”
रंजीत ने अपनी दादी की सीख याद की – “खाना दिल से बनाओ, प्यार से बनाओ।” उसने दाल फ्राई और आलू गोभी बनाई। मसालों की खुशबू, स्वाद और प्यार से बना वह खाना ग्राहकों को इतना पसंद आया कि सब उंगलियां चाटते रह गए। ट्रक ड्राइवरों ने कहा – “मालिक, ऐसा जायका तो सालों बाद चखा है।”
रामप्रकाश ने पहली बार रंजीत को एक रसोइये की नजर से देखा, मगर अपनी अकड़ में उसकी तारीफ नहीं की। बस कहा, “जब तक वह नहीं आता, तू ही खाना बना।”
अब श्रीमाली ढाबा की किस्मत बदल गई। रंजीत के हाथ का जादू हर पकवान में दिखने लगा। लोग सिर्फ पेट भरने नहीं, बल्कि रंजीत के हाथ का खाना खाने आने लगे। आमदनी दोगुनी, तिगुनी हो गई। मगर रामप्रकाश ने इस सफलता का श्रेय रंजीत को कभी नहीं दिया – उसे लगा, यह सब उसके टोटकों और बाबा के आशीर्वाद का असर है।
रंजीत ने असम के पारंपरिक मसालों से नई डिशेस शुरू कीं, मगर उसकी तनख्वाह वही ₹100 रोज़ रही। वह कभी शिकायत नहीं करता – खुश था कि मां के इलाज के लिए पैसे भेज पा रहा है।
ढाबे के पुराने ग्राहक, खासकर गुप्ता जी, रंजीत के हुनर को पहचानते थे। वे रामप्रकाश से कहते – “यह लड़का हीरा है, इसकी कदर करो।” मगर रामप्रकाश हंसकर टाल देता – “यह सब ऊपर वाले का खेल है।”
समय बीतता गया। ढाबा हाईवे का सबसे मशहूर ढाबा बन गया। मगर रामप्रकाश का अंधविश्वास और अहंकार बढ़ता गया। वह रंजीत के हर काम में नुक्स निकालने लगा। उसे लगता, रंजीत उसकी सफलता से जलता है।
फिर एक दिन, बहुत भीड़ थी। रंजीत सुबह से अकेला काम कर रहा था। थकान में उससे गलती हो गई – बचे हुए चावलों से मटर पुलाव बना दिया, जो गर्मी में थोड़े खराब हो गए थे। पुलाव एक बड़े व्यापारी को परोसा गया। उसे फूड पॉइजनिंग हो गई। ढाबे पर हंगामा मच गया। व्यापारी चिल्लाने लगा – “ढाबा बंद करवा दूंगा!”
रामप्रकाश ने रंजीत को रसोई से बाहर घसीटा, थप्पड़ मारा और बाबा को फोन किया। बाबा ने कहा – “उस लड़के पर बुरी आत्मा का साया है, उसे फौरन निकाल दो।”
रामप्रकाश ने रंजीत का सामान सड़क पर फेंक दिया, तनख्वाह भी नहीं दी – “आज के बाद यहां नजर मत आना।”
रंजीत सड़क पर आ गया – ना काम, ना छत, ना पैसा। उसकी आंखों में मां का चेहरा घूम रहा था।
रामप्रकाश ने सोचा, उसने कांटा निकाल दिया है, मगर असल में अपनी किस्मत की जड़ ही उखाड़ दी थी।
रामप्रकाश ने दो नए रसोइये रख लिए, दोगुनी तनख्वाह पर। मगर ग्राहकों को वह पुराना जायका नहीं मिला। धीरे-धीरे भीड़ कम हो गई। ट्रक ड्राइवर, गुप्ता जी – सबने आना बंद कर दिया। ढाबा फिर से वीरान हो गया।
रामप्रकाश ने बाबा से और टोटके कराए, मगर नतीजा सिफर रहा। ढाबा बर्बादी के कगार पर था।
उधर, रंजीत कई दिनों तक भूखा-प्यासा शहर में भटकता रहा। एक दिन मंदिर के बाहर गुप्ता जी मिले। रंजीत ने अपनी कहानी सुनाई। गुप्ता जी ने उसे घर पर रखा, नए कपड़े दिलाए और फैसला लिया – “हम एक नया ढाबा खोलेंगे!”
गुप्ता जी ने श्रीमाली ढाबे के सामने एक बंद ढाबा किराए पर लिया, ठीक करवाया, नाम रखा – “असम का जायका”। उद्घाटन के दिन गुप्ता जी अपने दोस्तों के साथ पहुंचे। रंजीत ने दिल से खाना बनाया, खुशबू हवा में तैरती हुई श्रीमाली ढाबे तक पहुंची।
ग्राहक खींचे चले आए। रंजीत के पुराने ग्राहक भी लौट आए।
रंजीत ने कुछ और गरीब लड़कों को काम पर रखा। अब वह सिर्फ रसोइया नहीं, मालिक था – मगर विनम्रता वही रही। खुद ग्राहकों से पूछता – “खाना कैसा लगा?”
रामप्रकाश श्रीमाली सड़क पार अपने ढाबे की वीरानी और असम का जायका की रौनक देखता रहा। कर्ज चढ़ गया, कर्मचारी चले गए। पत्नी ने समझाया – “यह सब आपके अंधविश्वास और अहंकार का नतीजा है। आपने हुनरमंद लड़के की बद्दुआ ली है।”
मगर रामप्रकाश मानने को तैयार नहीं था। आखिरी उम्मीद के तौर पर बाबा को बुलाया। बाबा ने सोने की आहुति वाला यज्ञ करवाया, गहने ले गया और रातों-रात फरार हो गया।
रामप्रकाश पूरी तरह टूट गया। उस दिन अपने खाली ढाबे की कुर्सी पर बैठा, सामने असम का जायका पर ग्राहकों की हंसी-ठिठोली का शोर था। पहली बार उसकी आंखों से अंधविश्वास का पर्दा हटा। उसे एहसास हुआ – ढाबे की रौनक, सफलता, जायका – सब रंजीत की वजह से था। उसके हाथों का कमाल था, लगन का नतीजा था, जिसे उसने एक छोटी सी गलती पर मनहूस कहकर निकाल दिया था। असल में वही उसकी सबसे बड़ी दौलत था।
पश्चाताप के आंसू बहने लगे। वह उठा, लड़खड़ाते कदमों से सड़क पार कर रंजीत के ढाबे पहुंचा।
रंजीत काउंटर पर बैठा था। रामप्रकाश उसके सामने जाकर खड़ा हो गया – अहंकार, अकड़ सब टूट चुका था।
“मुझे माफ कर दो रंजीत, मुझसे बहुत बड़ी गलती हो गई। मैं अंधा हो गया था।”
वह जमीन पर गिर पड़ा। रंजीत और गुप्ता जी उसे अस्पताल ले गए।
मगर अब बहुत देर हो चुकी थी।
रामप्रकाश ने जो खोया, वह सिर्फ ढाबा नहीं था – इंसानियत पर भरोसा, हुनर की कद्र करने की समझ, आत्मा की शांति खो दी थी। यह नुकसान अब शायद कभी पूरा नहीं हो सकता था।
सीख:
यह कहानी हमें सिखाती है कि इंसान का असली मूल्य उसके हुनर और चरित्र में होता है, ना कि अंधविश्वास में। सफलता मेहनत और ईमानदारी से आती है, किसी ढोंगी बाबा के आशीर्वाद से नहीं। जब हम किसी के हुनर की कद्र नहीं करते, अपने अहंकार में उसे ठुकरा देते हैं, तो असल में अपनी ही सफलता को ठुकरा रहे होते हैं।
रामप्रकाश को अपनी गलती का एहसास तो हुआ, मगर तब तक पानी सिर से ऊपर जा चुका था।
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